पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७१०

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करना होगा। (निःश्वास लेकर) ध्रुवदेवी के हृदय में चन्द्रगुप्त की आकांक्षा धीरे-धीरे जाग रही है।

शिखरस्वामी––यह असम्भव नही; किन्तु महाराज! इस समय आपको दूत से साक्षात् करके उपस्थित राजनीति पर ध्यान देना चाहिए। यह एक विचित्र बात है कि प्रबल पक्ष सन्धि के लिए सन्देश भेजे।

रामगुप्त––विचित्र हो चाहे सचित्र, अमात्य, तुम्हारी राजनीतिज्ञता इसी में है कि भीतर और बाहर के सब शत्रु एक ही चाल मे परास्त हों। तो चलो।

[दोनों का प्रस्थान / मन्दाकिनी का सशंक भाव से प्रवेश]

मन्दाकिनी––(चारों ओर देखकर) भयानक समस्या है। मूर्खों ने स्वार्थ के लिए साम्राज्य के गौरव का सर्वनाश करने का निश्चय कर लिया है। सच है, वीरता जब भागती है, तब उसके पैरों से राजनीतिक छल-छन्द की धूल उड़ती है। (कुछ सोचकर) कुमार चन्द्रगुप्त को यह सब समाचार शीघ्र ही मिलना चाहिए। गूंगी के अभिनय में महादेवी के हृदय का आवरण तनिक-सा हटा है, किन्तु वह थोड़ा-सा स्निग्ध भाव भी कुमार के लिए कम महत्त्व नही रखता। कुमार चन्द्रगुप्त। कितना समर्पण का भाव है उसमें––और उसका बड़ा भाई रामगुप्त! कपटाचारी रामगुप्त। जी करता है इस कलुषित वातावरण से कहीं दूर, विस्मृति मे अपने को छिपा लूं। पर मन्दा। तुझे विधाता ने क्यों बनाया? (सोचने लगती है) नहीं, मुझे हृदय कठोर करके, अपना कर्तव्य करने के लिए यहाँ रुकना होगा। न्याय का दुर्बल पक्ष ग्रहण करना होगा।

[गाती है]

यह कसक अरे आँसू सह जा।
बनकर विनम्र अभिमान मुझे
मेरा अस्तित्व बता, रह जा।
बन प्रेम छलक कोने कोने
अपनी नीरव गाथा कह जा।
करुणा बन दुखिया वसुधा पर
शीतलता फैलाता बस जा।

[जाती है / ध्रुवस्वामिनी का उदास भाव से धीरे-धीरे प्रवेश / पीछे एक परिचारिका पान का डिम्बा और दूसरी चमर लिये आती है / ध्रुवस्वामिनी एक मंच पर बैठकर अधरों पर उँगली रखकर कुछ सोचने लगती है और चमरधारिणी चमर डुलाने लगती है]

ध्रुवस्वामिनी––(दूसरी परिचारिका से) हाँ, क्या कहा! शिखरस्वामी कुछ कहना चाहते हैं? कह दो, कल सुनूँगी, आज नहीं।

६९० : प्रसाद वाङ्मय