पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७२०

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चन्द्रगुप्त––नहीं,––मैं अकेला ही जाऊँगा।

ध्रुवस्वामिनी––कुमार! यह मृत्यु और निर्वासन का सुख, तुम अकेले ही लोगे, ऐसा नहीं हो सकता। राजा की इच्छा क्या है, यह जानते हो? मुझसे और तुमसे एक साथ ही छुटकारा। तो फिर वही क्यों न हो? हम दोनों ही चलेंगे। मृत्यु के गह्वर मे प्रवेश करने के समय मैं भी तुम्हारी ज्योति बनकर बुझ जाने की कामना रखती हूँ। और भी एक विनोद, प्रलय का परिहास, देख सकूँगी। मेरी सहचरी, तुम्हारा वह ध्रुवस्वामिनी का वेश, ध्रुवस्वामिनी ही न देखें तो किस काम का?

[दोनों हाथों से चन्द्रगुप्त का चिबुक पकड़ कर सकरुण देखती है]

चन्द्रगुप्त––(अधखुली आँखों से देखता हुआ) तो फिर चलो।

[सामन्त-कुमारों के आगे-आगे मन्दाकिनी का गम्भीर स्वर से गाते हुए प्रवेश]

पैरों के नीचे जलधर हों, बिजली से उनका खेल चले,
संकीर्ण कगारों के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चलें,
सन्नाटे में हो विकल पवन, पादप निज पद हों चूम रहे,
तब भी गिरि पथ का अथक पथिक, ऊपर ऊँचे सब झेल चले,
पृथ्वी की आँखों में बन कर छाया का पुतला बढ़ता हो,
सूने तम में हो ज्योति बना, अपनी प्रतिमा को गढ़ता हो,
पीड़ा को धूल उड़ाता-सा, बाधाओं को ठुकराता-सा,
कष्टों पर कुछ मुसक्याता-सा, ऊपर ऊँचे सब झेल चलें,
खिलते हों क्षत के फूल जहाँ, बन व्यथा तमिस्रा के तारे,
पद-पद पर ताण्डव नर्तन हो, स्वर सप्तक होवें लय सारे,
भैरव रव से हो व्याप्त दिशा, हो काँप रही भय-चकित निशा,
हो स्वेद धार बहती कपिशा, ऊपर ऊँचे सब झेल चलें,
विचलित हो अचल न मौन रहे निष्ठुर शृंगार उतरता हो,
क्रंदन कंपन न पुकार बने, निज साहस पर निर्भरता हो,
अपनी ज्वाला को आप पिये, नव नील कंठ की छाप लिये,
विश्राम शान्ति को शाप दिए, ऊपर ऊँचे सब झेल चलें,

[चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिमी के साथ सब का धीरे-धीरे, प्रस्थान/
अकेली मन्दाकिनी क्रमशः मन्द होते आलोक में खड़ी रह जाती है]

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७०० : प्रसाद वाङ्मय