[शिखरस्वामी फिर रामगुप्त के कान में कुछ कहता है/रामगुप्त स्वीकारसूचक सिर हिलाता है]
शिखरस्वामी—राजाधिराज, आज्ञा दीजिए, यही एक उपाय है, जिसे कुमार बता रहे हैं। किन्तु राजनीति की दृष्टि से महादेवी का भी वहाँ जाना आवश्यक है।
चन्द्रगुप्त—(क्रोध से) क्यों आवश्यक है! यदि उन्हे जाना ही पड़ा, तो फिर मेरे जाने से क्या लाभ! तब मैं न जाऊँगा।
रामगुप्त—नहीं, यह मेरी आज्ञा है। सामन्त-कुमारों के साथ जाने के लिए प्रस्तुत हो जाओ।
ध्रुवस्वामिनी—तो कुमार हम लोगों का चलना निश्चित ही है। अब इसमें विलम्ब की आवश्यकता नहीं।
[चन्द्रगुप्त का प्रस्थान/ध्रुवस्वामिनी मंच पर बैठ कर रोने लगती है]
रामगुप्त—अब यह कैसा अभिनय! मुझे तो पहले से ही शंका थी, और आज तो तुमने मेरी आँखें भी खोल दी।
ध्रुवस्वामिनी—अनार्य! निष्ठुर! मुझे कलंक-कालिमा के कारागार में बन्द कर, मर्म-वाक्य के धुएँ से दम घोंटकर मार डालने की आशा न करो। आज मेरी असहायता मुझे अमृत पिलाकर मेरा निर्लज्ज जीवन बढ़ाने के लिए तत्पर है। (उठ कर, हाथ से निकल जाने का संकेत करती हुई) जाओ, मैं एकान्त चाहती हूँ।
[शिखरस्वामी के साथ रामगुप्त का प्रस्थान]
ध्रुवस्वामिनी—कितना अनुभूतिपूर्ण था वह एक क्षण का आलिंगन! कितने सन्तोष से भरा था! नियति ने अज्ञान भाव से मानो लू से तपी हुई वसुधा को क्षितिज के निर्जन में सायंकालीन शीतल आकाश से मिला दिया हो। (ठहर कर) जिस वायुविहीन प्रदेश में उखड़ी हुई साँसों पर बन्धन हो—अर्गला हो, वहीं रहते-रहते यह जीवन असह्य हो गया था। तो भी मरूँगी नहीं। संसार के कुछ दिन विधाता के विधान में अपने लिए सुरक्षित करा लूँगी। कुमार! तुमने वही किया, जिसे मैं बचाती रही। तुम्हारे उपकार और स्नेह की वर्षा में मैं भीगी जा रही हूँ। ओह, (हृदय पर ऊँगली रख कर) इस वक्षस्थल में दो हृदय हैं क्या? जब अन्तरंग 'हाँ' करना चाहता है, तब ऊपरी मन 'ना' क्या कहला देता है?
चंद्रगुप्त—(प्रवेश करके) महादेवि, हम लोग प्रस्तुत हैं किन्तु ध्रुवस्वामिनी के साथ शक-शिविर में जाने के लिए हम लोग सहमत नहीं।
ध्रुवस्वामिनी—(हँस कर) राजा की आज्ञा मान लेना ही पर्याप्त नहीं। रानी की भी एक बात न मानोगे? मैंने तो पहले ही कुमार से प्रार्थना की थी कि मुझे जैसे ले आये हो, उसी तरह पहुँचा भी दो।
ध्रुवस्वामिनी : ६९९