पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७३७

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रामगुप्त––(हँसकर) कुचक्र करने वाले क्या बोलेंगे?

ध्रुवस्वामिनी––और जो लोग बोल सकते हैं, जो अपनी पवित्रता की दुन्दुभी बजाते हैं, वे सबके-सब साधु होते है न? (चन्द्रगुप्त से) कुमार! तुम्हारी जिह्वा पर कोई बन्धन नही। कहते क्यों नही कि मेरा यही अपराध है कि मैंने कोई अपराध नहीं किया?

रामगुप्त––महादेवी!

ध्रुवस्वामिनी––(उसे न सुनते हुए चन्द्रगुप्त से) झटक दो इन लौह-शृंखलाओं को! यह मिथ्या ढोंग कोई नही सहेगा। तुम्हारा क्रुद्ध दुर्दैव भी नही।

रामगुप्त––(डाँट कर) महादेवी! चुप रहो!

ध्रुवस्वामिनी––(तेजस्विता से) कौन महादेवी! राजा, क्या अब भी मैं महादेवी ही हूँ? जो शकराज की शय्या के लिए क्रीतदासी की तरह भेजी गयी हो, वह भी महादेवी! आश्चर्य!

शिखरस्वामी––देवि, इस राजनीतिक चातुरी में जो सफलता....।

ध्रुवस्वामिनी––(पैर पटक कर) चुप रहो! प्रवञ्चना के पुतले! स्वार्थ के घणित प्रपंच! चुप रहो!

रामगुप्त––तो तुम महादेवी नही हो न?

ध्रुवस्वामिनी––नही। मनुष्य की दी हुई उपाधि मैं लौटा देती हूँ।

रामगुप्त––और मेरी सहधर्मिणी?

ध्रुवस्वामिनी––धर्म ही इसका निर्णय करेगा।

रामगुप्त––ऐ, क्या इसमे भी सन्देह!

ध्रुवस्वामिनी––उसे अपने हृदय से पूछिए कि क्या मैं वास्तव में सहधर्मिणी हूँ?

[पुरोहित का प्रवेश / सामने सबको देखकर चौंक उठता है / शिखर-स्वामी उसे चले जाने का संकेत करता है]

पुरोहित––नही, मैं नही जाऊँगा। प्राणि-मात्र के अन्तस्तल में जाग्रत रहने वाले महान् विचारक धर्म की आज्ञा, मैं न टाल सकूँगा। अभी जो प्रश्न अपनी गम्भीरता में भीषण होकर आप लोगो को विचलित कर रहा है, मैं ही उसका उत्तर देने का अधिकारी हूँ। विवाह का धर्मशास्त्र से घनिष्ठ सम्बन्ध है।

ध्रुवस्वामिनी––आप सत्यवादी ब्राह्मण हैं। कृपा करके बतलाइए....।

शिखरस्वामी––(विनय से उसे रोककर) मैं समझता हूँ कि यह विवाद अधिक बढ़ाने से कोई लाभ नहीं!

ध्रुवस्वामिनी––नही, मेरी इच्छा इस विवाद का अन्त करने की है। आज यह निर्णय हो जाना चाहिए कि मैं कौन है।

ध्रुवस्वामिनी : ७१७