पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७५

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"मिथ्याभाषी यह राजा पाषण्ड इसने सुत का बलि देना निश्चित किया था, वह पहिनेगा अपने वर्म को। राजकुमार हुआ है अब वलि-योग्य जो तो फिर क्यों उसको बलि मे देता नही ? बार-बार इसने हमको वंचित किया उसका है यह दण्ड, भोग ले, रह यहाँ, जा सकता तू नही कही भी नाव से । हरिश्चन्द्र-देव ! जन्मदाता । बस इममे अब नहीं देर करूंगा, बलि देने में पुत्र को। जो कर चुका प्रतिज्ञा उसको भूल के होने अवसर देगे नही हे समुद्र के देव देव आकाश के, शान्त हूजिये, क्षमा कीजिये, दीन को। (नेपथ्य से गर्जन के साथ) अच्छा जल्दी जाकर तू उद्योग में । तत्पर हो, कर यज्ञ पुत्र-बलिदान से। हरिश्चन्द्र-जो आज्ञा, मैं शीघ्र अभी जाके वही प्रथम करूंगा कार्य्य आपका भक्ति से। दु.खित का 1 प्रस्थान द्वितीय दृश्य स्थान-कानन (रोहित टहलता हुआ आप ही आप) रोहित-पिता परमगुरु होता है, आदेश भी उसका पालन करना हितकर धर्म है। किन्तु निरर्थक मरने की आज्ञा कड़ी कैसे पालन करने के है योग्य यों। हम जब थे अज्ञान, न थे कुछ जानते सुख किसका है नाम, तरुणता वस्तु क्या, करुणालय:५९