पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७६

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वस्तु न प्रकृति प्रलोभन मे न फंसे थे, पास की यों आकर्षित करती थी हमे, तभी क्यो न कर लिया पूर्ण बलि-कर्म को। अहा स्वच्छ नभ नील, अरुण रवि-रश्मि की सुन्दर माला पहन, मनोहर रूप मे, नव प्रभात का दृश्य सुखद दिखला रहा, उसे बदलना तमोजाल वाली कुहू- से, जिसमे तारा का भी प्रकाश है प्रकृति मनोगत भाव सश जो गुप्त है कैसा दुखदायक है। हाँ बस ठीक है। देखेगे परिवर्तनशीला प्रकृति को घूमेगे बस देश-देश स्वाधीन मृगया से आहार, जीव सहचर सभी नव किसलय दल सेज सजी सब स्थान मे, कहो रही क्या कमी, सहायक धनुष है। (नेपथ्य से) चलो सदा चलना ही तुमको श्रेय है। खडे रहो मत, कर्म-मार्ग विस्तीर्ण है। चलनेवाला पीछे ही को छोडता मारी बाधा- और आपदा-वृन्द चले चलो, हाँ मत घबडाओ जी कभी यह पैरो मे तेरे लगी यह सम्पत्ति लिपटती है तुम्हे । बढो, बढो, हाँ रुको नही इम भूमि मे, इच्छित फल की चाह दिलाती बल तुम्ह, सारे श्रम उसका हार से लगते है, जो पाता ईप्सित वस्तु को । चलो पवन की तरह, रुकावट है कहाँ, तो कही एक पग भी नही स्थान मिलेगा तुम्हे, कुटिल समार मे : सघन-लतादल मिले जहाँ है प्रेम से शीतल जल का स्रोत जहाँ है बह रहा धूल नही समझो, फूलो के बैठोगे, ६० : प्रसाद वाङ्मय