पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७५३

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भिन्न हो रहा है, अब ब्राह्मण को ही समतोलन के लिए क्षत्रिय बनना पड़ेगा। यह उसी का समारम्भ है। इरावती-तो क्या विप्लव होगा ? पतंजलि--(हंसकर) विप्लव ? नही ! संशोधन होगा। महाशक्ति की सृष्टि- महायज्ञ है। इसकी आहुतियाँ बन्द कर दी गयी है। मन, वाणी और शरीर से इसीलिए आर्य लोग अपवित्र हो गये है। आत्म-केन्द्र के अभाव मे कर्मों की प्रतिष्ठा नहीं रही। इसलिए अब फिर से यज्ञ का आरम्भ हो रही है।' [कुक्कुटाराम के द्वार से मालव सैनिकों के साथ इन्द्र कुमारियां आती हैं] अग्निमित्र--(पतंजलि से) आचार्य, हम लोग किधर चले ? पतंजलि-(इन्द्रध्वज की ओर हाथ उठाकर) इन्द्रध्वज के नीचे। दृ श्या न्त र [मालवों के साथ पतञ्जलि आकर इन्द्रध्वज को वन्दना करते हैं । विस्तृत भूमिका में इन्द्रध्वज, जिसके चारों ओर खड़ग लिए आठ कुमारियों गाती हुई घूमती हैं] चलमित्र -आचार्य ! अब क्या आज्ञा है ? पतंजलि-आज्ञा न पूछो । यज्ञ का आरम्भ है । जिस दृढता के साथ तुम लोगों ने अब तक इसकी रक्षा की है उससे विचलित न हो। जो कुछ करना है वह धीरे- धीरे नहीं, बडी तीव्र गति से मेघ-ज्योति की तरह स्वय उपस्थित होकर तुम से कर्तव्य करा लेगा। एक मालव- यह तो बात समझ मे नही आती। बुद्धि से जिसका आदि और | उस कर्म को करने के लिए कौन प्रस्तुत होगा? पतंजलि-तुम पक्के बुद्धिवादी हो। मालूम होता है कि तुमने जन्म लेने से पहले भी भली भाँति मोच विचार लिया था। एक मालव -आर्य ! ऐसा तो नही, फिर भी जब हम सोचने-विचारने के योग्य हो जायं तब अविवार से चलना क्या ठीक होगा ? पतंजलि -तुम्हारी ज्ञान-श्लाघा नयी नही है। विचार करने पर भी तुम आज तक की घटनाओं को नियति का सुनिश्चित कर्म नही समझ रहे हो। अभी हृदय के यौवन से, आनन्द से जिस सीमा तक बढ आये हो वह कटाचित बुद्धि क्षेत्र से दूर है। संम्राट् की आज्ञः भंग करके जो बीज तुमने आरोपित किया है, वह शीघ्र ही फलीभूत होगा। १ पतंजलि के आचार्यत्व मे पुष्यमिर ने अश्वमेध यज्ञ किए । मालविकाग्निमित्र नाटक और पातंजल महाभाष्य तथा अयोध्या के धनदेव-स्तंभ की पंक्ति 'कोसलाधिपेन दिरश्वमेधयाजिन: सेनापतेः पुष्यमित्रस्य...' इस प्रसंग मे अवलोक्य हैं । (सं०) अन्त न समझा गया अग्निमित्र : ५३३