पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७५२

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पुष्यमित्र-(उन्मत्त भाव से) तो क्या तुम सब विद्रोही हो ? नही, अग्नि- मित्र, तुमसे मुझे यह आशा न थी। तुमको बन्दीगृह में जाने की मैंने आज्ञा दी थी। अग्निमित्र-तात, वह आज्ञा शिरोधार्य करके मैं बन्दीगृह तक गया। पुष्यमित्र-तो फिर कैसे चला आया ? अग्निमित्र-आपकी आज्ञा पालन करके मैं लौट आया। पुष्यमित्र--(उद्विग्न भाव से टहलता हुआ) हूँ। (फिर सहसा खड़ग खींच लेता है) तो फिर आओ आज सेनापति और सैनिकों की शस्त्र परीक्षा होगी। साम्राज्य का एक स्वामिभक्त पुरुष यहाँ उपस्थित था, इसे संसार जान ले। बलमित्र-मालव की पवित्र कुमारियों के नाम पर, उनके उज्ज्वल सम्मान के नाम पर कुक्कुटाराम में जाने का पथ मांगता हूँ। प्रतिज्ञा करता हूँ कि मालव कुमारियों को लाने के अतिरिक्त संघाराम में और कुछ न करूंगा। पुष्यमित्र - मेरे जीवित रहते यह नही हो सकता। [पतंजलि का सहसा पुनः प्रवेश पतंजलि-वाणी का अपव्यय न करो। एक कदाचित् शब्द लगा लेने से क्या बुरा होता ? किन्तु यह क्या ? तुम लोग यहां क्या कर रहे हो? सेनापति, तुम्हारा इन्द्रध्वज महोत्सव विघ्नसंकुल है। उत्सव के संरक्षक व्याकुल है। स्थविरों की मन्त्रणा से विमूढ़ होकर सम्राट् बृहद्रथ की कोई विकट आज्ञा उन्हे मिली है। मैं स्वस्त्ययन करने जाकर लौट आया। चलिए शीघ्र उधर चलिए। [चिन्तित भाव से पुष्यमित्र का प्रस्थान] बलमित्र- अग्निमित्र ! अब क्या देख रहे हो ? [मालव सैनिकों का संघाराम के द्वार में प्रवेश] इरावती -अब क्या होगा? पतंजलि-वही जो होनेवाला है । इरावती-आचार्य, क्या होनेवाला है ? मै तो हतबुद्धि-सी हो रही हूं। पतंजलि-क्षत्रिये ! यह मनुष्य की तर्क-बुद्धि की प्रतिक्रिया है। महस्रों वर्ष की दार्शनिकता ने अपना अतिवादी स्वरूप प्रकट किया है। आज हम लोग दर्शन का सृष्टि से सामंजस्य करना भूलकर बौद्धिक मोह मे पड़े हुए है। हममें सब कमों को भस्म करनेवाली अग्नि-ज्वाला, आत्मा की आहुति समझकर सबको ग्रहण करनेवाली शक्ति का ह्रास हो रहा है। चिरकाल से ब्राह्मणों के विरोध में क्षत्रियों ने जिस दार्शनिकता की मृष्टि की है उमी का यह परिणाम है कि एक वीर बालिका उपद्रव की आशंका से घबराकर पूछती है कि अब क्या होगा ? आर्य चाणक्य ने शूद्रप्राय भारतवर्ष में जिस क्षात्र धर्म की प्रतिष्ठा की थी वह अनात्मवाद के चक्कर में छिन्न- ७३२ : प्रसाद वाङ्मय