पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/८०

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यदि पशु का है पिता; दे दिया सत्य ही उसने बलि के लिए इसे, तो ठीक है। राजपुत्र के बदले इसको दीजिये वलि; तब देव प्रसन्न तुरत हो जायेंगे और आप भी सत्य-सत्य हो जायेंगे। (शुन शेफ से) क्यों जी ! तुमको दिया पिता ने क्या इन्हे मूल्य लिया है ? शुनःशेफ -सत्य प्रभो ! सब सत्य है । वसिष्ठ-फिर क्या तुमको भी यह सब स्वीकार है ? शुनःशेफ-जो कुछ होगा भाग्य और निज कर्म मे। वसिष्ठ-अच्छा फिर सब यज्ञ-कार्य भी ठीक हो और शीघ्र करना ही इसको उचित है। हरिश्चन्द्र-जो आज्ञा हो, मै करता हूँ सब अभी। (सबका प्रस्थान) पंचम दृश्य (यज्ञ-मण्डप मे हरिश्चण्द्र, रोहित, वसिाठ, होता इत्यादि बटे है । शुनःशेफ यूप मे बँधा हुआ है। शक्ति उसे वध करने के लिए बढ़ता है, पर सहमा रुक जाता है) वसिष्ठ-गक्ति, तुम्हारी शक्ति कहाँ है जो नही करता है बलि-कर्म, देर है हो रही। शक्ति-पिता, आप इम पशु के निष्ठुर तान से भी कठोर है। जो आज्ञा यों दे रहे ! (शस्त्र फैक कर) मुझसे होगा कर्म नही, यह घोर है। (प्रस्थान । अजीगर्त का प्रवेश) अजीगत-और एक सो गाये मुझको दीजिये, मैं कर दूंगा काम आपका शीघ्र ही। वसिष्ठ-अच्छा अच्छा, तुम्हे मिलेगी और भी सौ गाये। लो पहले इसको तो करो । ६४ : प्रसाद वाङ्मय