पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७९

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अजीगतं-चुप रह रे तू मूर्ख ! बोलता क्या यहाँ खड़ा रह, (रोहित से)-यही मध्यम मेरा पुत्र है। रोहित-अच्छा है। बस चलो अभी तुम साथ में, राज्य-केन्द्र में चलते हैं हम भी अभी, उसी स्थान में मूल्य तुम्हें मिल जायगा, और इसे हम ले जाते हैं साथ में । (शुनःशेफ से) चलो चलो जी साथ हमारे शीघ्र ही। मेरे हाथों मे तुम तो हो बिक गये (शुनःगेफ का अजीगत की ओर देखते हुए रोहित के साथ प्रस्थान) चतुर्थ दृश्य स्थान-दरबार आपका करता बम 1 तूने आज्ञा (महाराज हरिश्चन्द्र सिंहासनामीन । शुन शेफ को साथ लिये हुए रोहित का प्रवेश) रोहित-पितृदेव हे महाराज यह पुत्र आपके सम्मुख हे। यह नम्र हो- अभिवादन कीजिये क्षमा इसे । यह पशु लेकर आया यहाँ । हरिश्चन्द्र-रे पुत्राधम भंग की मेरी, अब तू योग्य नही इस राज्य के रोहित-देव ! दिया जाता बलि में जो मैं तभी तो क्या पाता राज्य ! न ऐसा कीजिये। मुनिये, मैने रक्षा की है धर्म की नही आप होते अनुगामी नर्क के। पुत्र न रहता, तो देता फिर कौन था पिण्ड तिलोदक । अस्तु समझ भी लीजिये अपने पुण्य-पुरोहित देव वसिष्ठ से (वसिष्ठ का प्रवेश, राजा • न्युत्थान देता है) वसिष्ठ-राजन् ! विजयी रहो। सुनी सब बात है, यह तो अच्छा कार्य कुंवर ने है किया। . करुणालप: ६३