पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/८२

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(विश्वामित्र से) और न तुम भी मुझको हो पहचानते । क्या वह नवल तमाल-कुंज में प्रेम से वनमाला का बदला, विस्मृत हो गया क्या वह सब थी केवल कुटिल प्रवञ्चना ? अहो न अब पहचान रहे निज पुत्र को जो है परिचित शुन.शेफ के नाम से । विश्वामित्र-अरे ! सुव्रता ! तू है, सचमुच स्वप्न-सी मुझको अब सब बाते आती ध्यान में, तुझे खोजा था मैने ग्राम में। जब जाता था हिमगिरि के वनकुञ्ज मे सत्य, तुझे वञ्चित न कभी मैने किया । ईश-कृपा से आज अचानक पा गया। प्रिये ! तुम्हारा मुख, निज सुत को देख कर पूर्ण हुआ आनन्द (शुन गेफ की ओर) ज्येष्ठ यह पुत्र है मेरा; अब तुम सुत को लेकर साथ मे मुखी रहो (अजीगर्न से) रे दुष्ट कमाई क्यो नही अब बतलाना है उसको अपना पुत्र तू । (हरिश्चन्द्र मे) यह मुव्रता हमारी स्त्री- इसे अपने दामीपने मे और नराधम को भी शासित कीजिये । हरिश्चन्द्र-हे कौशिक ऋषिवर्य ! इमे कर दीजिये क्षमा, और सुग्रता स्वतन्त्रा हो रहे विश्वामित्र-अस्तु । सुव्रते | कहो कहाँ फिर तुम रही मेरे जाने वाद ? - (सुव्रता) प्रभो ! उम ग्राम से लाञ्छित करके देश-निकाला ही मिला, क्योकि गमिणी थी मै । इममे घूमती आई मै इम ऋपि के आश्रम पास म । गजन् ! छुड़ा दीजिये, ६६: प्रसाद वाङ्मय