प्रसव-समर्पण किया इसी की गोद में और स्वयं अन्त पुर मे दासी बनी वसिष्ठ -धन्य सुव्रते ! साधु ! सुशीले । धन्य तू पाया पति, सुत, फिर भी अपने भाग्य से विश्वामित्र -करुणा वरुणालय जगदीश दयानिधे । मव यों ही आनन्द सहित सुख मे रहें। (मवकी ओर देव कर) जगन्नियन्ता का यह सच्चा सबका ही वह पिता, न देता दुःख है- कभी किसी को । उसने देखा सत्य को हरिश्चन्द्र के, जिसने प्रण पूरा किया उद्यत होकर करने मे बलिकर्म को। वह जो रोहित को वलि देते तो नही - वह बलि लेता, किन्तु मना करता इन्हे । वह प्रकाशमय देव, न देता दुख है अस्तु, सभी तुम शक्तिहीन हो हो गये । कहता हूँ उसको सुन लो सब ध्यान से, ममस्वर से सब करो स्तवन, उस देव का जो परिपालक है इस पूरे विश्व का। तुममे जब हो शक्ति और यह पुत्र भी शुन शेफ हो मुक्त आप; तब जान लो यज्ञ कार्य पूरा होकर फल मिल गया। (ममवेत स्वर से-) जय जय विश्व के आधार । अगम महिमा सिन्धु-सी है कौन पावै पार। जो प्रसव करता जगत को, तेज का आकार । उसी की शुभ-ज्योति से हो सत्य पथ निर्धार । छुटे सब यह विश्व-बन्धन हो प्रसन्न उदार । विश्व प्राणी प्राण मे हो व्याप्त विगत विकार । -जय जय विश्व के आधार ॥ (आलोक के साथ वीणा-ध्वनि । शुन-शेफ का बन्धन आप-से-आप खल जाता है, और सब शक्तिमान् होकर खड़े हो जाते है । पुष्प-वृष्टि होती है) आलोक के साथ पटाक्षेप करुणालय: ६७
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/८३
दिखावट