पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/९८

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अरे तू क्षुद्र है- छाप -मूह तू ! (आकाश में गर्जन, सब त्रस्त होते हैं। सब शक्तिहीन हो जाते हैं । विश्वामित्र का मधुच्छन्दा प्रभृति अपने सौ पुत्रों के साथ प्रवेश) (वसिष्ठ से) विश्वामित्र-कहो कहो इक्ष्वाकु-वंश के पूज्य हे ! आ: महर्षि ! कैसा होता यह काम है ? हाय ! मचा रक्खा क्या यह अन्धेर है। क्या इसमें है धर्म ? यही क्या ठीक है? किसी पुत्र को अपने वलि दोगे कभी? नही ! नही ! फिर क्यों ऐसा उत्पात है? (आकाश की ओर देखकर) अपनी आवश्यकता का अनुचर बन गया आज प्रलोभन भय तुझको करवा रहे कैसे आसुर-कर्म । क्या इतना ? तुझ पर सब शासन कर सके और धर्म की लगाकर- फैमा आसुरी माया मे, हिंसा जगी अथवा अपने पुरोहिती के मान की ऋषि वसिष्ठ को, कुलगुरु को, इस राज्य के । (वमिष्ठ से) तुम हो त्राता धर्म मनुज की शांति के यह क्या है व्यापार चलाया ? चाहिये यदि मनुष्य के प्राण तुम्हारे देव को ले लो (मधुच्छन्दा की ओर देख) कितने लोगे सौ रहे वसिष्ठ-लज्जित हूँ, मुझमे यह साहस था विश्वामित्र महर्षि तुम्हें हूँ मानता (झपटी हुई एक राजकीय दासी का प्रवेश; जो राजा और अजीगत की ओर देखकर कहती है) (राजा से) दासी-न्याय ! न्याय !! हे देव, न्याय कर दीजिये (अजीगत्तं से) रे रे दृाट ! बना है ऋषि के रूप में यह सब नही - ८२ःप्रसाद वाङ्मय