पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/९९

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नवल का निरा बधिक रे नीच ! अरे चाण्डाल तू भूल गया दुर्दैव सदृश उस की (विश्वामित्र से-) और न तुम भी मुझको हो पहचानते । क्या वह तमाल कुंज में प्रेम से परिवर्तन वनमाला विस्मृत हुआ क्या वह सब थी केवल कुटिल प्रवञ्चना ? अहो न अब पहचान रहे निज पुत्र को जो है परिचित शुनःशेफ के नाम से । विश्वामित्र-अरे ! सुब्रता ! तू है. सचमुच स्वप्न-सी मुझको अब सब बातें आती ध्यान में, मैं जब तप के लिए छोड़ असहाय ही तुझे गया-फिर पडा अकाल । न था कहीं क्षण भर को अवलम्ब तुम्हें यह भूल कर में चिन्तित था धर्म और तप-तत्त्व में रे झूठे अभिमान तुझे धिकार है। तुझे बहुत खोजा था मैंने ग्राम में। जब जाता था हिमगिरि के वनकुञ्ज में सत्य; तुझे वंचित न कभी मैंने किया। ईश-कृपा मे अचानक गया। प्रिये ! तुम्हारा मुख, निज सुत को देखकर पूर्ण हुआ आनन्द (शुनःशेफ की ओर सकेत) ज्येष्ठ यह पुत्र है मेरा; अब तुम सुत को लेकर साथ में सुखी रहो । (अजीगत से) रे दुष्ट वधिक ! अब क्यों नहीं बतलाता उसको अपना पुत्र दू (हरिश्चन्द्र से) राजन् ! यह सुव्रता हमारी नारि हैं इसे मुक्त दासीपन से कर दीजिये, और नराधम को भी सत कीजिये। राजन् ! सब तप और सत्य तुम कर चुके आज पा tic करुणालय:८३