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इतना कहकर वह ग्रीक सैनिक अपने अश्व पर संवार हो गया और थोड़ी दूर जाकर अपनी तुरही बजाया जिसके शब्द से समीप की विशाल ग्रीक सेना उन भारतीय वीरों पर टूट पड़ी। भारतीय वीर चक्रव्यूह बनाकर स्त्रियों की और बच्चों की रक्षा करने लगे। देखते ही देखते ग्रीकों की सेना ने प्रचण्ड आक्रमण किया और क्षत्रियों ने उन्हें अच्छी तरह रोका, युद्ध भयानक हो उठा, हजारों भारतीय और ग्रीक वीरों के शव से वह भूमि भर गई, पर भारतीय वीर उसी पहाड़ी की तरह अचल रहे जिस पर वे खड़े थे। ग्रीक सेना समुद्र की लहर की समान बारम्बार ठोकर खाकर पीछे हटती थी। ऐसा क्यों न हो, जब कि भारत ललनाये भी उस समय रणचण्डी का कार्य कर रही थीं। पति हाथ में तलवार न रहने पर अपनी स्त्री से तलवार पाकर सहर्ष पुण्य-भूमि में प्राण-दान कर रहा था और कही मुमूर्ष पति रणचण्डी के खड्ग-छाया निर्भय सो रहा था। पर कहां तक, धीरे-धीरे एक भी भारत के योद्धा न बचे और न उनके शिशु ही माताओं के माथ रोने पाये, क्योंकि ग्रीक नरपिशाचों के हाथ से एक भी न बचे। भारत के सात हजार वीर अपने स्वदेश को फिर रहे थे पर वे नीच ग्रीकों की नीचता के कारण न पहुंचने पाये। अज्ञात स्थान मे उनका जीवन विसर्जन हुआ। भारत के सन्तान अब उस भूमि को भी भूल गये जहां पर राजपूर रक्त सलिला से पुण्य तीर्थ बना था। "अरस्तू के छात्र का शपथ" भी विद्वत्तापूर्ण था और उसकी प्रशंसा भी यदि अरस्तू ने न की होगी तो उसके देशवासी ग्रीक सैनिकों से अवश्य ही हुई होगी। -जयशंकर 'प्रसाद' १०० : प्रसाद वाङ्मय