पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१०३

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अनुवृत्ति प्रसाद वाङ्मय के इक्कीस निबन्ध यहां संकलित हैं। इनमें 'इन्दु प्रस्तावना' से 'भक्ति' पर्यन्त प्रथम ग्यारह-'इन्दु' के विभिन्न अंकों से प्राप्त हुए। इनमें से तीन ही 'प्रकृति सौन्दर्य', 'सरोज' और 'भक्ति'-'चित्राधार' में संग्रहीत हैं, शेष अनुपलब्ध रहे। बारहवां-वह 'अभिमत' है जो अपने मे एक साहित्यिक वस्तुता है। दो कारणों से ऐसा कहना पड़ता है। पहला तो यह कि किसी अन्य कृति पर पूज्य पिताश्री के द्वारा अपने मन्तव्य के प्रकाश का यह प्रथम और अन्तिम आलेख है। और, अगले सात-काव्य और कला से यथार्थवाद और कायावाद तक के निबन्धसमुच्चय का उपोटात-रूप भी-यह 'अमिमत' है। निरालाजी के प्रति अपने सहज स्नेहवश इसे नही प्रत्युत समकालीन ममीक्षा की अस्वस्थ प्रकृति के उपचारार्थ इसे लिखा गया था। किसी प्रसंग मे उन्होंने एक बार कहा था--देखते ही समझ में आ जाता है कि यह किस किस 'माश' का आदमी है -सो, 'अमिय मरल शशिसीकर रविकर रागविराग भरा प्याला' को 'मतवाला' में देखते ही निराला किस 'माश' के हैं वह उनकी समझ जो आया वह पत्थर की लकीर-सा पडा रहा। कदाचित, दोनों महाप्राण एक दूमरे के कृती रूप को जैसा जान पाये वैसा अन्य नही। पूज्य पिताश्री का अन्तिम काव्यपाठ-निरालाजी के ही आग्रह लखनऊ के कान्यकुब्ज कालेज में हुआ उसमें निरालाजी को कामायनी सुनते मैंने देखा था- आंखें बन्द किये, कानों से छन्दों को पीते और बीच-बीच मे सिहरते हुए । इस 'अभिमत' मे भी 'मतवाला' में छपी वह कविता किस रूप मे उल्लिखित है-यह स्वाध्यायनया अवगम्य है। उसी कविता के सन्दर्भ में यहां एक घटना उल्लेख्य है। घर (जिसे अब प्रसाद-मन्दिर कहते है) के सामने गली की तिरमुहानी पर एक खपरैल की कोणाकृति दालान थी। पीछे एक वैसा ही कच्चा कमरा जिसमें वर्षाकालीन अखाड़ा था। उसी दालान के एक ओर कुछ पुराने ढंग की तम्बाकू-सुरती की दुकान चलती थी। उस दोरुखी दालान में एक चारपाई पड़ी रहती थी उसी पर पूज्य पिताश्री की मालिश भी होती थी। एक बड़ी चौकी आगन्तुकों के बैठने के लिए थी। किन्तु, बिछावन किसी पर नही। अपराह्न में वहां खुली गोष्ठी हुआ करती अनुवृत्ति : ३