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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१०४

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थी। एक दिन वैसी गोष्ठी चल रही थी, चार पांच साहित्यकार और साहित्यिक जमे थे। अकस्मात् निरालाजी प्रत्यक्ष हुए, गोष्ठी का विहगावलोकन किया और विहंगम गति से दूसरी ओर की गली में घूम गए। मास्टर साहब (स्व० कृष्णदेव प्रसाद गौड़ 'बेढब') बोले-'कसी अंशिष्टता है प्रसादजी, क्या बड़ा कवि हो जाने से शिष्टाचार छूट जाता है, आपको भी दण्ड प्रणाम कुछ नहीं, हम लोग बुलाते ही रहे और वे चले गये, वाह !' 'मास्टर साहब, कवि और अ-कवि के शिष्टाचार कभी-कभी भिन्न हो जाया करते हैं-यह समझना चाहिए, उन्हें आना होगा तो आ जायंगे। यह वही निराला है न जिसने 'अमिय गरल शशिसीकर रविकर रागविराग भरा प्याला' लिखा है- इस एक पंक्ति का तात्पर्य समझने समझाने की क्षमता है किसी में'-कुछ चुनौती के स्वर मे वे बोले। इतने मे गली परिक्रमा कर निरालाजी पुनः प्रगटे । बंकिम-अराल भंगिमा से गोष्ठी को देखते एक हल्की हुंकार भरी और बैठ गए। मानों यहां जो चर्चा हुई उसे अतीन्द्रिय स्तर पर उन्होंने सुन लिया हो। बोले -'बाबू साहब, उस उक्त 'स्मोक' करने की तलब तीखी हो गई-हाजरीने जलसा मुआफ करें।' मास्टर साहब बोल उठे –'स्मोक तो आप यहां भी कर सकते थे।' 'बाबू साहब के सामने ऐसी गुस्ताखी न कभी की, न करूंगा।' 'और यह कहने में गुस्ताखी नहीं ?' 'कथनी और करनी में अन्तर वाले युग के प्राणी होकर भी दोनों का भेद समझ नहीं पाये- मास्टर हैं न, शायद बेकन ने कहा या और किसी ने पर बात ठीक कही गई है Teachers are block headed-- आपको बताता हूं --मैने कहा कि आपको एक चांटा मारा-बताइये कुछ चोट लगी ? और वही करके दिखाऊं (थोड़ा हाथ ऊपर उठाकर) तो चोट लगेगी या नहीं।' 'कहिए मास्टर साहब कवि और अ-कवि के शिष्टाचार का अन्तर समझ में आया या अभी कुछ बाकी है' कहकर पूज्य पिताश्री हंसने लगे। जब मई कविता को लेकर समकालीन समीक्षा विषमीक्षण करने लगी और अपने मीमांसन-विवेक की कमी को कविता में अस्पष्टता आदि दोष-दर्शन से ढंकने लगी, तब ऐसे 'अभिमत' के माध्यम से वास्तविकता को निदर्शित न किया जाता तो 'भ्रष्ट होहि स्रति मारग मोरा' चरितार्थ होता। केवल साहित्य की भूमि पर ही विशृंखलता अथवा प्रकारान्तरेण निरर्थकता बताने से सन्तुष्ट होकर समकालीन समीक्षा ने उनके व्यक्तित्व को भी विशृंखलित कहते निरालाजी को सारस्वत-पंक्ति से हटाने का उपक्रम किया। ___ गीतिका' के प्रकाशन में -स्व० रायकृष्णदासजी का भारती-भण्डार अग्रसर हो चुका था और पुस्तक बनारस में ही छप रही थी। निरालाजी उसके मुद्रण-काल में प्रायः यहीं रहकर मुद्रणादेश देते रहे। तब, पृथक-पृथक दो माहित्यिक शिविरों के संव्यूहन का वह एक विलक्षण दृश्य था--एक था विकल्पवाद का तो दूसरा था ४: प्रसाद वाङ्मय