पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/११८

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हिन्दी साहित्य सम्मेलन "हिन्दी' एक वह भाषा है जिसमें फि हम इस लेख को लिखते हैं अथवा वह संयुक्त प्रान्त, मध्यप्रदेश तथा विहार में कुछ परिवर्तन के साथ भिन्न-भिन्न स्थानों में बोली जानेवाली भाषा है, जिसकी लिपि 'देवनागरी' है। 'साहित्य' यह एक बहुत ही गम्भीर विषय है, इसको मनन करने के लिये संस्कृत के विद्वानों ने दर्शन, तर्क, न्याय आदि शास्त्रों का सहारा लिया है, फिर भी विवाद नहीं मिटा, और मिटे तो किस प्रकार, क्योंकि नवीन समय के साथ नवीन रुचि और नवीन आविष्कारों ने तो और भी भ्रम में डाल रखा है, अथवा बहुत से लोग 'विद्या विवादाय' समझे हुए हैं। ___ अस्तु, प्राचीन समय में साहित्य की अवधि केवल उसके अलंकार पिंगलादि दश अंगों तक समझी जाती थी। यद्यपि स्थानानुसार महाकवि लोग उसमें ज्योतिषतत्त्व, इतिहास, दर्शन, धर्म, वेदान्त, सामान्य नीति, राजनीति, कला, शिल्प इत्यादि सब वस्तुओं का समावेश करते थे, तो भी वे प्राचीन साहित्य में अंगों का स्थान पाते थे, और अब भी सत्कवियों की कविता में अंशरूप से वे सब बिद्यमान रहते हैं, क्योंकि उनके बिना सत्काव्य बन ही नहीं सकता। एक आदिकाव्य रामायण ही को लीजिये और देखिये कि उममें के ऐतिहासिक चित्र किस सुन्दरता के साथ खींचे गये हैं । तत्त्व के विषय में उपनिषद् आदि कैसा अच्छा उपदेश देते हैं 'पुपोष वृद्धि हरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिव बालचन्द्रमा 'हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः' 'शमेन सिद्धि मुनयो न भूभृतः' इत्यादि पद्यांश ज्योतिष तत्त्व, सामान्य-नीति के उज्ज्वल टुकड़े हैं जिन्हें कालिदास, भारवि इत्यादि महाकवियों ने लिखा है, गवेषणा से उन महाकवियों की कविता में ऐसे असंख्य प्रमाण मिलेंगे। किन्तु वे अंग ही हैं। उसके बृहदाकार के लिए भिन्न-भिन्न शास्त्र हैं। अस्तु, यहाँ हम नवीन साहित्य के विषय में लिख रहे हैं । नवीन साहित्य से हमारा यह मत नहीं है कि वह वास्तव में कोई नवीन वस्तु है, किन्तु उसका स्वरूप नवीन है। जैसे 'हिन्दी साहित्य' कह देने से केवल नायिकाभेद और शृंगार रस का अनुभव न करना चाहिए किन्तु भाषा तत्त्व भूगर्भतत्त्व, पुरातत्त्व, इतिहास, विज्ञान, व्याकरण, काव्य, कोश १८:प्रसाद वाङ्मय