पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/११७

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उसके पद्य हैं। लक्ष्य केवल उसका वही 'लोकोत्तर चमत्कार' ही है, क्योंकि अश्रुपात करुण रम में होता है और विश्वेश्वर की अनन्त महिमा गान के समय भी भक्तों के हृदय में होता है। रोमांच भयानक वस्तु दर्शन में भी होता है, और प्रिय दर्शन में भी होता है, और उसी तरह मन्चे हृदय से ईश्वर ने ध्यान में भी रोमाच हो जाता है। परन्तु हमारे कहने का तात्पर्य यही है कि उसके आस्वाद के लिये सहृदयता की आवश्यकता होती है। कविता मानक आरबार के भमय रेवल स्वप्रकाशानन्द' ही रहता है। जब उमका मानव हृदय उपयोगा , तब उसम रस और उनके भाव अनुभाव इत्यादि भिन्नतया प्रतीयमान होते हैं, जैसे भी कोय रामायण को लीजिये उमकी कविता मे मुग्ध होकर आहाद ना कर किसी ने लिखा है-- कजन्त राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम् । आरुह्य कविता शाखां वन्दे बाल्मीकि-कोकिलम् । पर जब उसकी उपयोगिता का अवमर आना है । तत्काल ला। कहते है कि 'रामवदाचरणीयं न तु रावणवत' अस्तु, उमका आनन्द सन्म मय : लक्षण उमका स्वप्रकानन्द ही है । इसीलिये कहा भो हैपुण्यवन्तः विवण्बन्ति योगिवद्रससंततिम । (इन्दु किरण ४, कला २, १९६७) १ वैयाकरणो के मतानुसार भी- 'शब्द ब्रह्माणिनिष्णात: परब्रह्माधिगच्छति' २. 'कविता करना अनन्त पुण्य का फल है'। स्कन्दा म मातृगुप्त (कालिदास) प्रथम अंक-तृतीय दृश्य । (सं०) कविता रसास्वाद : १७