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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१२०

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अंशों से सम्बन्ध रखता है, अतः यह अंश रूप से प्रायः सस्कविता में मिलेगा। वह नाटकों में विशेष रूप से रहता है, इसी से काव्यमात्र में इसकी बड़ी मर्यादा है। 'काव्येषु नाटकं रम्यं' कहा है। नाटक में जितनी शिक्षा हो सकती है उतनी प्राय: किसी में भी नहीं प्राप्त हो सकती है, क्योंकि उसके प्रबन्ध, नियम और उद्देश्य बहुत उदार तथा महान होते हैं। प्रायः कोई भी महाकवि ऐसा न मिलेगा जिसने कुछ न कुछ रामचरित न लिखा हो, ऐसा क्यों? इसलिए कि उसे सर्वागसुन्दर धीरोदात्त नायक ऐसा दूसरा नही मिलता। इससे ज्ञात होता है कि नाटक आदर्श का दर्शन करता है, क्योंकि श्री रामचन्द्र ऐसे नायक संसार मे नही मिलेगे, पर उनके चरित्र शिक्षा के योग्य है, इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते है। माधव के ऐसे पुरुष संसार में मिल सकते है, शकुन्तला मी स्त्रियां संमार में उपलब्ध हो मकती है, पर जानकी के समान नही। क्यों फिर कवि व्यर्थ प्रयास करते है ? नही, उनका अर्थ-यह है कि उत्तम चरित्रों से मध्यम चरित्रवालों को सीखना ही उपयुक्त है। 'वेणीसंहार' के भीम के ऐमे चरितवाले मिल सकते है परन्तु युधिष्ठिर के ऐगे कम मिलेगे । अस्तु, सारांश यह कि 'मनोरंजन और शिक्षा' काव्य के दो उद्देश्य है, किन्तु ऐसे काव्यों में शिक्षा का वही अंश दृष्टिगोचर होता है जिसे ममाज-शिक्षा कह सकते है, उसमें संसार-शिक्षा बहुत कम मिलती है। अस्तु, वह भी एक साहित्य का प्रधान अंग है इसलिए उनके शास्त्र लग-अलग है, जैसे भाषातत्त्व, समारतत्त्व, प्रत्नतत्त्व, विज्ञान, दर्शन आदि। इनमें बहुत मे बाह्य और बहुत मे आध्यात्मिक शिक्षा देनेवाले है, दोनों प्रकार की शिक्षा से संसार-समाज की उन्नति होती है। अतः साहित्य के सब अगो की उन्नति वरना श्रेय-विधायक है। हमारा यह मत नहीं है कि सब लोग रम वर्णन मे लगे रहे, अथवा केवल विज्ञान ही बरसाया करे, नही, जो जिम के उपयुक्त हो वह उमको करे, और रचयितागो, ग्रन्थकारो, कवियो की कृतियो को पाठक-समालोचकगण उन्हीं की दृष्टि से देखकर उनका अनुशीलन करें, क्योंकि ऐसा करने से उनका तत्त्व शीघ्र समझ में आता है, नही तो मतभेद के झगड़े में पड़कर अन्याय से कटाक्ष करना पडता है, इसलिए सर अपनी योग्यता के अनुसार अपने विषयो की उन्नति करते हए, मिल करके कार्य करने के लिए सन्नद्ध हों । इमीलिये यदि हिन्दी माहित्य' का सम्मेलन' यथार्थ म्प मे होगा तो जनसमाज उसमे मज्जन करके बहुत सुख पावेगा ! (इन्दु कला १, किरण ११, मं० १९६७) २०: प्रसाद वाङ्मय