कवि और कविता कवियों को लोगों ने गृष्टिकर्ता माना है, क्योंकि वह मनुष्य को जब कि वह कविता का अनुशीलन करने लगता है, तब एक अभिनव सृष्टि का दर्शन कराता है । वह संसार के सांचे में नहीं ढलता, किन्तु संसार को अपने साँचे में ढालना चाहता है। मनुष्य के हृदय के लिए वह बडी सुन्दर मृष्टि रचता है, जिसमें प्रवेश करने से कविता पाठक एक प्रकार से वाह्य-ज्ञान-शून्य होकर वमन्नमय कनक-कमल- मकरन्द-पूर-कानन मे आनन्द-मय ममय व्यतीत करता है। लोकोक्ति है कि 'रोना और गाना किसे नही आता' उसी तरह से कविता में भी कल्पना की जो लीलाएँ हैं, उन्ही का अनुकरण करते हुए प्रायः सब मनुष्य कल्पना करते है, अपने विचारों को गोचते हैं, प्रकट करते है; पर कवि की तरह अपने विचार कोन प्रगट कर मकता है ? उसके हरित मघनकुंज जिनके पत्र मरकत को भी लजाते है, जिन पर धूल के कणों का स्पर्श भी नही है, कौन निर्मित कर सकता है ? उसके ऐसे आनन्दमय राज्य में जहां पाप, कलह, द्वेष, भय का लेश नहीं है, कोन राज्य कर सकता है ? वहाँ कवि मान्त्वनामयी गजाज्ञा का प्रचार करता है, वह फूलों को भी चिरस्थायी बनाता है, इसी म कहना पडता है कि उसकी सृष्टि विलक्षण गणी है, और सच्चा कवि अमरजी लाभ करता है। सौन्दर्य की आलोचना आप कर सकते हैं, उसे अपने चित्त मे स्थान दे सकते है, उसकी सुन्दरता का वर्णन कर सकते है; पर क्या कभी इतना कहने का माहम भी कर सकते है "गिर। अनयन नयन बिनु बानी' ? अस्तु, इतना कहने का अधिकारी वही है। कवि मानव स्वभाव के परिज्ञान के समान ही प्रकृतिज्ञान का भी उद्योग करता है, और वह उसके अनशीलन मे उसी तरह लगा रहता है। महाकवि वाल्मीकि के लिए कोई बड़ा भारी पुस्तकालय नहीं था, उन्होने अपना महाकाव्य लिखने के लिए जो सुन्दर जाह्नवी तट पर कुसुमित कानन निर्धारित किया था, वह क्यों ? वे प्रकृति का वाह्य तथा आन्तरिक चक्षु से अन्वेषण करते थे, तब उनकी प्रतिभा ऋतु-वर्णन मे इतनी देखी जाती है, प्रकृति के एक-एक क्षुद्र अंश, यहाँ तक कि महान् वृक्ष की डालियों मे की छोटी-छोटी पत्तियो की नसे भी उनसे बाते करती थी। कवियो से जैसा प्राभातिक पवन खेलता है, किसी देव-शिशु को भी वैसी क्रीड़ा नही आती। कवि और कविता : २१
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