पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१२४

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'शकुन्तला' मे कण्वमहर्षि का भी कन्या की ओर जो, प्राकृतिक प्रेम था उसी का निदर्शन कराते हुए महाकवि कालिदास लिखते है यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्डया अन्तर्वाष्पभरापरोधिगदितं चिन्ताजई दर्शनम् । वैक्लव्यं मम तावदीदृशमपि स्नेहादरण्यौकसः पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनया विश्लेषु दुःखेनवैः ? और तुलसीकृत 'रामचरितमानस' मे धनुष भग के समय, जानकी के हृदय मे भी एक अपूर्व शकामय भाव उत्पन्न हुआ था- मो धनुराज कुँवर कह देहीं। बाल मराल कि मन्दर लेहीं । दूसरी भावमूलक कविता जिसमे भाव को प्रधान मानकर कविता की जाती है, वह एक तो भाव के अनुकूल तथा बनाकर लिखी जाती है, जैसे 'वेणीसहार-नाटक'; इसमे द्रोपदी का स्त्रीजन-सुलभ प्रतिहिमामयी उत्तेजना से भीम का दुःशासन के हृदय का रक्तपान करना। हिन्दी मे भी श्रीधर पाठक का ऊजड ग्राम' इसी विभाग मे आवेगा, जो कवि ने बहुत दिन पर उम गाँव को देखकर उसकी शोचनीय अवस्था का चित्र खीचा है, जन्मभूमि-प्रेमीमात्र म उम भाव का होना सम्भव हे । प्राय भावमयी कविता स्फुट भी मिलती है, यथा- जा थल कीन्हे बिहार अनेकिन, ता थल कॉकरी बैठि चुन्यो कर जा रमना ते करी बहु बातन, ता रसना ते चरित्र गुन्यो कर 'आलम' जोन ते कुंजन में करी केलि, तहाँ अब सीस धुन्यो कर नैनन में जो सदा बसते, तिनकी अब कान कहानी सुन्यो कर ॥ या, मैथिलीशरण गुप्त की बनाई हुई 'वृषणा के वे शो की कथा' इत्यादि । कुटिल, उदार दुष्ट, कर, दयावान, तथा चिन्ताशील हृदय आदि के भावो को दिखानेवाली कविता, समार के व्यवहार की भावमयी कविताये, अपना प्रभाव मनुष्य के चरित्र पर डालती है जिससे वह सुधरता है । हिन्दी में प्रायः शृंमाररम की कविता के सामने ऐमी कविताओ का अभाव है। यद्यपि अब कुछ-कुछ इस ओर लोगो की रुचि फिरी है, पर कहाँ तक फिरेगी जब २४ : प्रसाद वाङ्मय