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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१२५

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. कि उनके सामने केवल शृगाररस से भरे हुए 'नायिका भेद' की क्रिया, विदग्धा मे अपनी क्रीड़ा दिखाया करेगी। यहाँ हम कुछ शृंगार रस के भी विषय में लिखना चाहते है। हिन्दी साहित्य में प्रायः वैष्णव कवि विशेष हुए हैं, और उन्ही की कविता ब्रजभाषा की मूल है। सूर, केशव, तुलसी आदि सब वैष्णव कवि है और उनके बाद के भी प्रायः ब्रजभाषा के कवि, जैसे तोषनिधि आदि, वैष्णव हा। इन लोगों को अपने उपास्य देवता में शृंगार भाया। जब प्रधान उपासकों की यह दशा थी, तो अनुयायी कवि लोग भी उसी रंग में रंगे जाने लगे। श्रीयुत अम्बिकादत्तजी भी उसको नहीं छोड़ सके, स्फुट कविताये तो क्या, 'दृश्य ललिता नाटिका' भी इमी तरह के शृंगार वर्णन मे लिखी गयी है। दृश्य काव्य मे रमस्थापन आदि, तथा मामाजिक विषयों की बहुत ही विवेचना की जाती है, तो भी 'ललिता' को शृगार-रस की नायिका बनाया है। यद्यपि साहित्य के बहन से आचार्यों ने. गणिका में रसाभाम माना है, तो भी लोगों ने 'वैशिक' नायक, नथा परकीया 'गणिका' आदि नायिकाओ मे शृगार रस का विशेष वर्णन किया है, जिससे उसकी अश्लीलता बढ़ गया है। देखिए 'शकुन्तला' को शुद्ध शृंगा. र. -भान नाटक मानते है, पर उसमें तो कही भी रति वा ऐसे अश्लील शृगार का विवरण नहीं है। तो भी उसे लोग बहुत आदरणीय दृष्टि से देखते है, इसका कारण यह है कि उसमें शृंगार रस का वर्णन ऐसी पवित्रता के साथ किया गया है कि जिसे पढकर चित्त पुलकित हो जाता है। ऋषि कन्या शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के हृदय में जो आसक्ति उत्पन्न हुई उसे भी समाज बन्धन मे ले आने के लिए कवि कुलगुरु कालिदास कैसा अच्छा लिखते है-- असंशयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा यदार्यमस्यामभिलाषि मे मनः । सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरण अस्तु, शृगार रस दूषित नही है, पर उसकी वर्णन शैली जो हिन्दी मे प्रचलित है, बहुत दूषित हो गयी। प्रायः इसके प्रथम लेखक जयदेवजी है, उन्होंने ही इस शृंगार का प्रथम ग्रन्थ, 'गीत गोविन्द' बनाया है, पर हिन्दी मे तो शृंगार रस के लक्षण भी विलक्षण बना डाले गये है। कवि तोषनिधि जी लिखते है दम्पति जहं लौं सुख लहैं, काम कला के फन्द । सो शृंगार में प्रेम है, थाई आनंद कन्द ॥ अब कहिए, इसका लक्षण विप्रलम्भ शृगार मे भी ठीक हो सकता है ? अस्तु, प्रवृत्तयः॥ कवि और कविता : २५