पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. स्थूल रूप में व्यक्तित्व है । 'व्यक्तित्व, स्वभाव से उत्पन्न चरित्रों का संकलन है । इसे ही बौद्ध शब्द में 'चेतसिक-संसार' कहेगे। जो अहम् का विषय है उसे व्यक्ति कहेगे। यह स्वभाव-पूर्ण है उसका विश्लेषण करके सत्य को बतानेवाला दृश्य जड़ प्रकृति में कला के द्वारा चेतना की अनुभूति कराते हुएं मौन्दर्य को विकसित करनेवाले वर्णनात्मक और भावात्मक साहित्य से पूर्ण, 'नाटक' को हिन्दी मे कौन-सा स्थान है या मिलेगा · यह विद्वानों के विचार की वस्तु होनी ही चाहिए । हिन्दी और नाटक के सम्बन्ध में एक और विचित्र बात है कि इसके नवयुग का उत्थान नाटक से ही हुआ। श्री हरिश्चन्द्र ने जिस काल मे अपनी प्रतिभा मे और परिश्रम से हिन्दी की उन्नति की, उम काल का साहित्य नाटको को अलग कर देने से बचता ही क्या है ? महाकवि महात्मा तुलसीदास और सूरदास, कबीर और मीरा, देव और बिहारी इत्यादि ने माहित्य-कथानक-महाकाव्य, गीति- काव्य, भावात्मक और प्रेमगपी विताओ मे पूर्ण कर दिया था, काव्य-कला विकसित हो चुकी थी। तब यह आवश्यक था कि जिसमें कलाओं की पूर्णता के साथ काव्य का सर्वागीण परिपाक होता है उस 'काव्येषु नाटकं रम्य' की ओर समाज का ध्यान जाय । इसी मे नवयुग के उत्थान काल के साथ ही हिन्दी के नाटका का विकाग है । तर भी क्या यह नहीं कहा जा सकता है कि हिन्दी में नाटको को अब उपयुक्त और उन्म स्थान मिलना चाहिए ? प्रचार की दृष्टि से भी भाषा को जितनी सहायता नाटकों से मिलती हे वह उपेक्षणीय कदापि नहीं। आज दिन साधारण जनता जिस परिमाण मे उनी गजलो का दयगम कर रही है, वह (परिमाण) जिन्होने लिपि रूप मे उर्दू का स्वप्न भी नही देखा, उनकी मुग्व-गफा से 'शेरो' को निकलते हुए देखकर मगझा जा सकता है। कम-से-कम मेरा तो यही विश्वास है कि यह पारसी 'स्टेज' को कुपा है। हिन्दी के उत्तमोत्तम महाकवियो वी वीणा इस विषय मे अपना अधिकार खो रही है। यह र गमच से निकलनेवाली उर्दू की पुकार है जो शिक्षित और अशिक्षित सब जनता को अभिनय-भावभगी द्वारा कठिन शब्दो का अर्थ बताकर आकर्षित कर रही है। और भी, उच्च कोटि के मावो के वाक्य-विन्यासो द्वारा प्रचारक भाषा को इससे सुलभ साधन नहीं है तब भी यह कहने मे सकोच होगा कि 'हिन्दी नाटकों के लिए एक सुरक्षित स्थान है और वह गौरवपूर्ण है। कोई भी भाषा अपने विनय और शील तथा सदिच्छा की अभिव्यक्ति के लिए गौरव पा सकती है । और उस शिष्टाचार का प्रथम सोपान भाव-गी और कथोपकथन है जिससे नाटक का मंगठन होता है। मानव इतिहास मे, भाषा का इतिहास जो सहायता देता है वह कम मूल्य का नहीं है। समाज के कल्याण से यदि भाषा का अविच्छिन्न हिन्दी मे नाटक का स्थान : २९