सम्बन्ध है तो यह मानना होगा कि भाषा में शिष्टाचार का प्रचार करने में नाटक के कथोपकथन बहुत कुछ हाथ बटाते है । कथोपकथन के विषय में एक बात और कहनी है जो हमारे प्रधान विषय से बहुत दूर नही है । संस्कृत नाटकों के अनुसार हिन्दी मे भी पात्र भेद से, भाषा-सृष्टि की प्रथा चल पड़ी थी। जैसे संस्कृत नाटकों में महागनी को भी संस्कृत बोलने का सम्मान नही प्राप्त था-केवल देवी या विरजा- परिवाजिका आदि ही इसकी अधिकारिणी थी क्योंकि उस काल में राज्यभाषा यद्यपि संस्कृत थी तब भी प्रान्त भेद से मागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री आदि भाषाये व्यवहत होती थी। सस्कृत के नाटकों में एक यह भी समन्वय था। पर हिन्दी का लक्ष्य दूसरा है : उसका उद्देश्य ज्यों-ज्यों राष्ट्रीयता की ओर बढ़ रहा है उसी प्रकार उसका क्षेत्र भी बढ़ रहा है, तब उसमे गंवार पात्रों के मुख से प्रान्तीय (बोलियों) भाषाओं को कहलाकर कथोपकथन के उस तात्पर्य को हानि पहुंचाना होगा जहां उसका सम्बन्ध व्यवहार और शिष्टाचार से है । इटर, नाटक अभिनय के लिए तो हैं ही, वे सुपाठय भी होते है अथवा वे श्रव्य काव्य का भी अभिनय कर लेते हैं। प्रसंगवश यदि किसी सीमाप्रान्त के मनुष्य का अभिनय करने में भाषा भी पश्तो रही, तो उसे हिन्दी का नाटक कौन कहेगा? ऐसे भेदों का प्रदर्शन हमारी दृष्टि मे अभिनय ही है। उसमे भाव-भंगी के द्वारा व्यवहार-आचार के द्वारा भाषान्तर का काम अच्छे प्रकार से चल सकता है। इन कथोपकथनों से साहित्य के गूढ़ भावों का, शिष्टाचार की सभ्यता का अर्थ समझने मे, भाषा का जो प्रौढ़ और पुष्ट कार्य नाटक करता है, वह कम महत्त्व का नही है । इस दृष्टि से भी नाटक हिन्दी में एक उच्च स्थान का अधिकारी है। तब भी हिन्दी का कोई अच्छा रंगमंच नही और उसको उत्तेजित करने के लिए हिन्दी भाषी समाज की ओर से कोई संस्था नही और न तो उसके उद्देश्य की ओर ध्यान दिलाने वाला कोई पात्र यदि साहित्य अपने काल की सभ्यता का ज्ञापक है तो यह कहना ही होगा कि सभ्यता को नाटक से बड़ी सहायता मिलती है । वेशभूषा, आचार का समर्थन, हुये आचारों का तिरस्कार और शील, विनय इत्यादि का वह स्वतंत्र कोश है। नाटक अपने अभिनय के द्वारा समाज की मनोवृत्तियों को साँचे का काम देता है। एक बार हम फिर कहेंगे, समाज में नैतिक साहस आदि गुणों को जागृति में नाटक प्रचुरता से सहायक हो सकता है। जब हम देखते हैं कि समाज का या प्रान्त का विभाग भाषा से बड़ी सरलता के साथ किया जा रहा है तब यह कहना असंगत होगा कि पशुओं को वृत्ति से कुछ ही परिमार्जित 'मानव स्वभाव' का नग्न रूप दिखा कर अन्तः-जगत् को विकसित करके हिन्दी भाषा-भाषी समाज का मंगल करनेवाले ३० : प्रसाद वाङ्मय
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