सरोज संसार-कानन में जितने कुसुम हैं; उनमें सरोज का आसन सबसे ऊंचा है। उसका प्रवेश प्रायः सब देवदुर्लभ स्थानों में है । श्री का विलाम-मन्दिर सरोज ही है। यहां तक कि बनमाला भी बिना इसके नहीं बनती। निर्मल नील-सरोवर में तरंग- मालाएँ नृत्य कर रही हैं। सरोज का सुन्दर विकास देखकर, मधुकर मलयानिल से दौड़-दौड़कर यही कहता है कि-"मित्र. तुम कहाँ थे, तुम्हारे बिना इस नव-प्रफुल्लित मरोज का आनन्द नही मिलता, क्या तुम मलय से ही संतुष्ट हो गये ? पर यह नहीं जानते कि तोषामोदकारों ने तुम्हारा नाम मलयानिल रख दिया है . मित्र ! वास्तव में तुम्हारा नाम दक्षिण पवन है, तुम्हें किसी एक के अनुकूल न होना चाहिए। और यह भी तुम नहीं जानते कि सरोज-सोरभ के बिना तुम्हारी गति धीर न होगी; जब तक तुम सरोज-पराग-धूलि-धूसर न होगे, तब तक तुम यों ही दौड़ा करोगे !" वास्तव में मधुकर का कथन सत्य है। यही समझकर तो पण्डितराज ने सरोज और पवन में मैत्री करा दी है, और उसी का अनुमोदन करते हुए कहा भी है- अयि दलदरविन्द स्यन्दमानं मरन्दं तव किमपि लिहन्ती मंजु गुंजन्तु भृगाः। दिशि-दिशि निरपेक्षस्तावकीनं विवृण्वन् परिमलमयमन्यो बान्धवो गन्धवाहः॥ अहा, जिस समय प्रभात की पहिली किरण प्रशान्त गगन-सागर में दिखाई देती है, उसी समय सहस्रदल सरोज सहस्रकर की एक-एक किरण के साथ अपनी संवर्तिकाओं को प्रसारित करता है। उस समय गणना करते हुए गणितज्ञों के समान वह भी ग्रहों में अपनी गति दिखाता है और सुरसिक मधुकरगण का तो वह आधार है, क्योंकि कुसुम-कानन मे जैसा कमल उसे प्यारा है, वैसा अन्य नही। अहा ! विरह-विधुर मधुकर का चित्र किसी कवि ने कैसा अच्छा खीचा है- निरानन्दः कौन्दे मधुनि विधुरो बालबकुले न साले सालम्बे लवमपि लवंगे न रमति । प्रियंगो नासंगं क्षणमपि न चूते विचरति स्मरं लक्ष्मीलीलाकमलमधुपानं मधुकरः॥ महाकवि कालिदास ने तो सरोज को इतना उच्च आमन दिया है कि दिवाकर सरोज : ३५
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