पमा नियस्यान को भी कहीं-कहीं उसे अपनी ऊपर की किरणों से प्रबोधित करना पड़ता है; क्योंकि उन्होंने कहा है कि- सप्तषि हस्तावचितावशेषा- ण्यधो विवस्वान् परिवर्धमानः ॥ सरोरुहागि प्र बो ध य त्यू ध्वं मु खै म यू खैः ॥ सरोज ! साहित्य-सरोवर की तुम एक सुखद समीपस्थ सामग्री हो, कवि लोग तुम्हें इसीलिए नाना अलंकारो से सुसज्जित कर अहर्निश तुम से खेला करते हैं । वास्तव में तुम कवि कल्पना के कल्पद्रुम-कुसुम हो, मधुकर से अधिक कवि-गण तुम्हारे पराग-कण से रंजित रहते है। सरोज ! यदि तुम सरोवर मे न होते, तो जल-क्रीडा के समय मे कोई रमणी अपना मुख कैसे छिपा सकती, और भारवि को कौन-सी दूसरी सामग्री ऐसे कुहक रचने के लिए मिल सकती- सरोजपत्रे नु विलीनषट्पदे, विलोलदृष्टे: स्विदमूविलोचने । शिरोरुहाः स्विन्नतपक्ष्मसंतते- द्विरेफवृन्दं नु निशब्दनिश्चलम् । अगूढहास स्फुट दन्तकेसरं, मुखं स्विदेतद्विक सन्नुपंकजम् । इति प्रलीनां नलिनीवने सखी, बिदा वभूवुः सुचिरेण योषितः॥ इन पद्यो मे भारवि ने ऐसा इन्द्रजाल रचा है कि वास्तव मे उस सरोज-वन मे रमणी का मुखमण्डल पहचानने मे सखियो को देर हो सकती है। सरोज ! चञ्चल तरंगो मे नृत्य करते हुए जब तुमने 'माघ' का हृदय हरण कर लिया था, तब वह भी तुम्हारी प्रशंसा करने से वंचित न रह सके और तभी उन्होने कहा कि. कान्तायाः कुवलयमप्यपास्तयणे: शोभाभिर्न मुखरुचाहर्मक एव । संहर्षावलिविरुतरितीवगार्य- ल्लोलोयौ सरसि महोत्पलं ननत ॥ सरोज ! साहित्य-सरोवर के मुन्दर सौरभित सरोज ! सौन्दर्यमयी सुन्दरियों के चरण से लेकर, नेत्र, मुख, आदि को उपमा के लिए, कवियो के समीपस्थ सामग्री ३६ : प्रसाद वाङ्मय
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