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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१४२

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प्रतिष्ठित होकर सौंदर्य-बोध की बाह्य सत्ताओं का सृजन करती है। संस्कृति का मामूहिक चेतनता से, मानसिक शील और शिष्टाचारों से, •मनोभावों से .मौलिक संबंध है । धर्मो पर भी इसका चमत्कारपूर्ण प्रभाव दिखाई देता है । ईरानी खलीफाओं के ही कला और विद्या-प्रेम तथा सौंदर्यानुभूति ने -जो उनकी मौलिक संस्कृति द्वारा उनमें विद्यमान थी--मरुभूमि के एकेश्वरवाद को सौंदर्य से सजा कर स्पेन और ईजिप्ट तक उसका प्रचार किया, जिसमे वर्तमान यूरोपीय सौंदर्य-बोध अपने को अछूता न रख सका । संस्कृति सौंदर्य-बोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है । इसलिए साहित्य के विवेचन में भारतीय संस्कृति और तदनुकूल सौंदर्यानुभूति की खोज अप्रासंगिक नहीं, कितु आवश्यक है। साहित्य में सौंदर्य-बोध-संबंधी रुचि- भेद का वह उदाहरण बड़ा मनोरंजक है, जिसमें जहाँगीर ने शराब पीते हुए खुसरो के उस पद्य के गाने पर कव्वाल को पिटवा दिया था, जिसका तात्पर्य एक खंडिता का अपने प्रेमी के प्रति उपालंभ था। जहांगीर ने उस उक्ति को प्रेमिका के प्रति समझ कर अपना क्रोध प्रकट किया था। मौलाना ने समझाया कि खुसरो भारतीय कवि है, भारतीय माहित्यिक रुचि के अनुसार उसने यह स्त्री का उपालंभ पुरुष के प्रति वर्णन किया है, तब जहांगीर का क्रोध ठंढा हुआ। यह रुचि-भेद सांस्कृतिक है। यहां पर यह विवेचन नहीं करना है कि ऐसा उपालंभ पुरुष को स्त्री के प्रति देना चाहिए या पुरुष को स्त्री के प्रति; किंतु यह स्पष्ट देखा जाता है कि भारतीय साहित्य में पुरुष-विरह विरल है और विरहिणी का ही वर्णन अधिक है। इसका कारण है भारतीय दार्शनिक-संस्कृति । पुरुष मर्वथा निलिप्त और स्वतंत्र है। प्रकृति या माया उसे प्रवृत्ति या आवरण में लाने की चेष्टा करती है। इसलिए आसक्ति का आरोपण स्त्री में ही है। 'नैव स्त्री न पुमानेप न चैवायम् नपुंसकः' मानने पर भी व्यवहार में ब्रह्म पुरुष है, माया स्त्री-धर्मिणी। स्त्रीत्व मे प्रवृत्ति के कारण नैसर्गिक आकर्षण मानकर उसे प्रार्थिनी बनाया गया है। यदि हम भारतीय रुचि-भेद को लक्ष्य में न रखकर साहित्य की विवेचना करने लगेगे, तो जहांगीर की तरह प्रमाद कर बैठने की आशंका है। तो भी इस प्रसंग में यह बात न भूलनी चाहिए कि भारतीय संस्कृत वाङ्मय में समय-चक्र के प्रत्या- वर्तनों के द्वारा इम रुचि-भेद में परिवर्तन का आभास मिलता है। ऊपर की कही हुई संभावना या माहित्यिक सिद्धान्त मायावाद के प्रबलता प्राप्त करने के पीछे का भी हो मकता है; क्योंकि कालिदाम ने रति का करुए विप्रलंभ वर्णन करने के साथ- ही-साथ अज का भी विरह-वर्णन किया है और मेघदूत तो विरही यक्ष की करुण- भाव-व्यंजना से परिपूर्ण एक प्रसिद्ध अमर कृति है।' इस प्रकार काल-चक्र के महान् प्रत्यावर्तनों से पूर्ण भारतीय वाङ्मय की सुरुचि- संबंधी विचित्रताओं के निदर्शन बहुत-से मिलेंगे। उन्हें बिना देखे ही अत्यंत शीघ्रता ४२: प्रसाद वाङ्मय