पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१४१

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काव्य और कला हिंदी मे साहित्य की आलोचना का अष्टिकोण बदला हुआ-सा दिखाई पड़ता है। प्राचीन भारतीय साहित्य के आलोचकों की विचारधारा जिस क्षेत्र में काम कर रही थी, वह वर्तमान आलोचनाओं के क्षेत्र से कुछ भिन्न था। इस युग की ज्ञान- संबंधिनी अनुभूति में भारतीयों के हृदय पर पश्चिम की विवेचनशैली का व्यापक प्रभुत्व क्रियात्मक रूप में दिखायी देने लगा है। किंतु साथ-ही-माथ ऐमी विवेचनाओं में प्रतिक्रिया के रूप में भारतीयता को भी दुहाई सुनी जाती है, परिणाम में, मिश्रित विचारों के कारण हमारी विचारधारा अव्यवस्था के दलदल मे पडी रह जाती है । काव्य की विवेचना में प्रथम विचारणीय विषय उमका वर्गीकरण हो गया है और उसके लिए संभवतः हेगेल के अनुकरण पर काव्य का वर्गीकरण कला के अंतर्गत किया जाने लगा। यह वर्गीकरण परंपरागत विवेचनात्मा जर्मन दार्शनिक शैली का वह विकास है, जो पश्चिम में ग्रीस की विचारधारा और उसके अनुकूल सौंदर्य- बोध के सतत अभ्यास से हुआ है। यहां उसकी परीक्षा करने के पहले यह देखना आवश्यक है कि इस विचार-धारा और सौंदर्य-बोध का कोई भारतीय मौलिक उद्गम है या नहीं। यह मानते हुए कि ज्ञान और मौंदर्य-बोध विश्वव्यापी वस्तु हैं, इनके केंद्र देश, काल और परिस्थितियों से तथा प्रधानतः संस्कृति के कारण भिन्न-भिन्न अस्ति- त्व रखते हैं। खगोलवर्ती ज्योति-केद्रों की तरह आलोक के लिए इनका परस्पर संबंध हो सकता है। वही आलोक शुक्र की उज्ज्वलता और शनि की नीलिमा में सौंदर्य-बोध के लिए अपनी अलग-अलग सत्ता बना लेता है । भौगोलिक परिस्थितियां और काल की दीर्घता तथा उसके द्वारा होने वाले सौंदर्य-संबंधी विचारों का सतत अभ्यास एक विशेष ढंग की रुचि उत्पन्न करता है, और वही रुचि सौंदर्य-अनुभूति की तुला बन जाती है, इमी से हमारे मजातीय विचार बनते हैं और उन्हें स्निग्धता मिलती है । इसी के द्वारा हम अपने रहन-सहन, अपनी अभिव्यक्ति का सामूहिक रूप से संस्कृत रूप में प्रदर्शन कर सकते हैं। पह संस्कृति विश्ववाद की विरोधिनी नहीं; क्योंकि इसका उपयोग तो मानव-समाज में, आरंभिक प्राणित्व-धर्म में सीमित मनोभावों को सदा प्रशस्त और विकासोन्मुख बनाने के लिए होता है। संस्कृति मंदिर, गिरजा और मसजिद-विहीन प्रांतों में अंतः- काव्य और कला : ४१