मनोवृत्ति दिखलाई देती है वह महत्व उसकी परंपरा के कारण है । यों तो साहित्य- कला उन्हीं तर्कों के आधार पर मूर्त भी मानी जा सकती है; क्योंकि साहित्य-कला अपनी वर्णमालाओं के द्वारा प्रत्यक्ष मूत्तिमती है । वर्णमातृका की विशद कल्पना तंत्र- शास्त्रों में बहुत विस्तृत रूप से की गई है । 'अ' से प्रारंभ होकर 'ह' तक के ज्ञान का ही प्रतीक 'अहं' है । ये जितनी अनुभूतियां हैं, जितने ज्ञान हैं, 'अहं' के-आत्मा के हैं । वे सब वर्णमाला के भीतर से ही प्रकट होते हैं। वर्णमालाओं के संबंध में अनेक प्राचीन देशों की आरंभिक लिपियों से यह प्रमाणित है कि वह वास्तव में चित्र-लिपि है। तब तो यह कहना भ्रम होगा कि चित्रकला और वाङ्मय भिन्न-भिन्न वर्ग की वस्तुएँ हैं। इसलिए अन्य सूक्ष्मताओं और विशेषताओं का निदर्शन न करके केवल मूर्त और अमूर्त के भेद से साहित्य-कला की महत्ता स्थापित नही की जा सकती। संभव है कि इसी अमूर्त संबंधिनी महत्ता से प्रेरित होकर प्लेटो ने प्राचीन काल में कविता को संगीत पो अंतर्गत माना हो। उनकी विचार-पद्धति में कविता की आवश्यकता संगीत के लिए है। संभवतः अमूर्त संगीत आम्यंतर और मूर्त शरीर बाह्य इन्हीं दोनों आधारों पर कला की नीव ग्रीस के विचारकों ने रक्खी; सो भी बिलकुल भौतिक दृष्टि से-अध्यात्म का उसमें संपर्क नहीं। इसीलिए प्लेटो का शिष्य अरस्तू कला को अनुकरण (Imitation) मानता है। लोकोत्तर आनंद की सत्ता का विचार ही नहीं किया गया। उसे तो शुद्ध दर्शन के लिए सुरक्षित रक्खा गया। कौटिल्य की तरह लोकोपयोगी राजशास्त्र को प्रधान मानते हुए व्यक्तिगत जीवन के स्वास्थ्य के लिए प्लेटो संगीत और व्यायाम को मुख्य उपादेय विद्या की तरह ग्रहण करता है। संगीत का मन से और व्यायाम का शरीर से सीधा संबंध जोड़कर वह लोक-यात्रा की उपयोगी वस्तुओं का संग्लन करता है। वर्तमान-काल में सौंदर्थ-बोध की दृष्टि से यह वर्गीकरण अपना अलग विचार- विस्तार करने लगा है। इसके आविर्भावक हेगेल के मतानुसार नला के ऊपर धर्म- शास्त्र का और उससे भी ऊपर दर्शन का स्थान है । इस विचार-धारा का सिद्धांत है कि मानव सौंदर्य-बोध के द्वारा ईश्वर की सत्ता का अनुभव करता है। फिर धर्म- शास्त्र के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति-लाभ करता है। फिर शुद्ध तर्क ज्ञान से उससे एकीभूत होता है । यह भी विचार का एक कोटिक्रम हो सकता है; परंतु भारतीय विचार-धारा इस संबंध में --जो अपना मत रखती है, वह विलक्षण और अभूतपूर्व है। काव्य के संबंध में यहां की प्रारंभिक और मौलिक मान्यता कुछ दूसरी थी। उपनिषद् में कहा है तदेतत् सत्यम् मंत्रेषु कर्माणि कवयो यान्यपश्यंस्तानि त्रेतायाम् बहुधा संततानि । कवि और ऋषि इस प्रकार पर्यायवाची शब्द प्राचीन काल में माने जाते थे। 'ऋषयो काव्य और कला : ४५
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