. मंत्रद्रष्टारः'। ऋषि लोग या मंत्रों के कवि उन्हें देखते थे। यही 'देखना' या दर्शन कवि की महत्ता थी। इतना विराट् वाङ्मय और प्रवचनों का वर्णमाला में स्थायी रूप रखते हुए भी कविता शुद्ध अमूर्त नही कही जा सकती। मूर्त और अमूर्त के संबंध में उपनिषद् में कहा है-वेवाव ब्रह्मणो रूपे मूर्त चैवामूतं च मत्यं चामृतं च-(बृहदारण्यक-२ अ०-३ ब्रा०१) मूर्त, नश्वर और अमूर्त, अविनश्वर दोनों ही ब्रह्म के रूप हैं। वायु और आकाश अमूर्त, अविनश्वर है; इनसे इतर मूर्त और नश्वर (परिवर्तनशील) हैं। इस तरह मूर्त और अमूर्न का भौतिक भेद मानते हुए भी रूप दोनों में ही माना गया है। तब यह विश्वास होता है कि हमारे यहां रूप की साधारण परिभाषा से विलक्षण कल्पना है । क्योंकि बृहदारण्यक में लिखा है -स आदित्यः कस्मिन् प्रतिष्ठित इति चक्षुपीति कस्मिन्नु चक्षुः प्रतिष्ठितमिति रूपेष्विति चक्षुषा हि रूपाणि पश्यति कस्मिन्नु रूपाणि प्रतिष्ठितानीति हृदय इति होवाच हृदयेन हि रूपाणि जानाति हृदये ह्य व रूपाणि प्रतिष्ठितानि -(३ अ० ९ ब्रा• २०) वह आदित्य आलोक-पुज आँखो मे प्रतिष्ठित है। आँखों की प्रतिष्ठा रूप मे और रूप-ग्रहण का सामर्थ्य, उसकी स्थिति, हृदय मे है। यह निर्वचन मूर्त और अमूर्त दोनों मे रूपत्त्व का आरोप करता है, क्योकि चाक्षुष प्रत्यक्ष से इतर जो वायु और अंतरिक्ष अमूर्त रूप है, उनका भी रूपानुभव हृदय ही करता है।, इस दृष्टि से देखने से मूर्त और अमूर्त की सौंदर्य-बोध-संबंधी दो धारणाएं अधिक महत्त्व नही रखती। सीधी बात तो यह है कि सौदर्य-बोध बिना रूप के हो ही नहीं सकता। सौदर्य की अनुभूति के साथ-ही-साथ हम अपने सवेदन को आकार देने के लिए उनका प्रतीक बनाने के लिए बाध्य है। इसलिए अमूर्त सौदर्य-बोध कहने का कोई अर्थ ही नही रह जाता। ग्रीक लोगों के सौदर्य-बोध मे जो एक क्रम-विकास दिखलाई पड़ता है, उसका परिपाक संभवतः पश्चिम मे इस विचार-प्रणाली पर हुआ है कि मानव-स्वभाव सौदर्यानुभूति के द्वारा क्रमविकास करता है और स्थूल से परिचित होते-होते सूक्ष्म की ओर जाता है। इसमे स्वर्ग और नरक का, जगत् की जटिलता से परे एक पवित्रता और महत्त्व की स्थापना का मानमिक उद्योग दिखलाई देता है। और, इसमें ईसाई धार्मिक संस्कृति ओत-प्रोत है। कलुषित.और मूर्त संसार निम्नकोटि में, अमूर्त और पवित्र ईश्वर का स्वर्ग इससे परे और उच्च कोटि में । भारतीय उपनिपदों का प्राचीन ब्रह्मवाद इस मूर्त विश्व को ब्रह्म से अलग निकृष्ट स्थिति मे नही मानता। वह विश्व को ब्रह्म का स्वरूप बनाता है ४६ : प्रसाद वाङ्मय
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