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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१५०

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काव्य का एक विषय कला भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कला का वर्गीकरण हमारे यहां भिन्न रूप से हुआ है । कलाओं में संगीत को लोग उत्तम मानते हैं क्योंकि इसमें आनंदांश वा तल्लीनता की मात्रा अधिक है, किंतु है यह ध्वन्यात्मक । अनुभूति का ही वाङ्मय अस्फुट रूप है। इसलिए इसका उपयोग काव्य के वाहनरूप में किया जाता है, जो काव्य की दृष्टि से उपयोगी और आकर्षक है। संगीत के द्वारा मनोभावों की अभिव्यक्ति केवल ध्वन्यात्मक होती है । बाणी का संभवतः वह आरंभिक स्वरूप है। वाणी के चार भेद प्राचीन ऋषियों ने माने हैं। चत्वारि वापरिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः । गुहात्रीणि निहिता नेङ्गयंति, तुरीया वाचं मनुष्यावदंति (ऋग्वेद)। वाणी के वे चार भेद आगे चलकर स्पष्ट कर दिये गये, और क्रमशः इनका नाम परा. पश्यंती, मध्यमा और वैखरी आगम शास्त्रों में मिलता है। परा, पश्यंती और मध्यमा गुहा' निहित है। वैवरी वाणी मनुष्य बोलते है, शास्त्रों मे परावाणी को नाद-रूपा शुद्ध अहं परामर्श- मयी शक्ति माना है। पश्यंती वान्य और वाचक के अस्फुट विभाग, चतन्य-प्रधान द्रष्टा रूपवाली है। मध्यमा वाच्य और वाचक का विभाग होने पर भी बुद्धि-प्रधान दर्शन-स्वरूप द्रष्टा और दृश्य के अंतराल मे रहती है। वैखरी--स्थान, करण और प्रयत्न के बल से स्पष्ट होकर वर्ण की उच्चारण-शैली को ग्रहण करनवाली दृश्य- प्रधान होती है। वृहदारण्यक मे कहा है--यत्किञ्चाविज्ञातं प्राणस्य तद्रूपं प्राणोह्य विज्ञातः प्राण एनं तद्भूत्वाऽवति । प्राण-शक्ति मपूर्ण अज्ञात वस्तु को अधिकृत करनी है। वह अविज्ञात रहस्य है। इसीलिए उसका नित्य नृतन रूप दिखाई पड़ता है। फिर यन् किञ्च विज्ञातं वाचस्तद्रूपं वाग्धि विज्ञाता वागेनं तद्भूत्वाऽवति, जो कुछ जाना जा सका वही वाणी है, वाणी उसका स्वरूप धारण करके, उस ज्ञान की रक्षा करती है। ज्ञान-मंवधी करणो का विवेचन करने में भारतीय पद्धति ने परीक्षात्मक प्रयोग किया है। स्वप्रमितिक के ज्ञान के लिए पांच इद्रियाँ प्रत्यक्ष है। उन्ही के द्वारा संवेदन होता है, उनमे तन्मात्रा के क्रम से बाह्य पदार्थों के भी पांच विभाग माने गये है। 'आकाशाद् वायु' वाले सिद्धात के अनुसार आकाश का गुण शब्द ही इधर ज्ञान के आरम्भ मे है। जो कुछ हम अनुभव करते है, वाणी उसका रूप है। यह वाणी का विकाम वर्गों मे पूर्ण होता है और वर्गों के लिए आभ्यंतर और बाह्य दो प्रयत्न माने गये है। आम्यंतर प्रयत्न उसे कहते हे जो वर्णों की उत्पत्ति से प्रारभावी वायु-व्यापार है। और वर्णोत्पत्तिकालिक व्यापार को बाह्य प्रयत्न कहा जाता है। यह वाङ्मय-अभिव्यक्ति, मनन की प्राणमयी क्रिया, आत्मानुभूति की प्रकट होने की ५०: प्रसाद वाङ्मय