विद्यमान रहती है। प्रकाश की किरणों के समान भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के दर्पण में प्रतिफलित होकर वह आलोक को सुंदर और ऊर्जस्वित बनाती है । ज्ञान की जिस मनन-धारा का विकास पिछले काल में परंपरागत तर्को के द्वारा एक दूसरे के रूप में दिखाई देता है, उसे हेतु विद्या कहते है। किंतु वैदिक-साहित्य के स्वरूप में उषा-सूक्त और नासदीय-सूक्त इत्यादि तथा उपनिषदों में अधिकांश संकल्पात्मक प्रेरणाओं की अभिव्यक्ति हैं। इसीलिए कहा है-तन्मेमनः शिव- संकल्पमस्तु । कला को भारतीय दृष्टि में उपविद्या मानने का जो प्रसंग आता है उससे यह प्रकट होता है कि यह विज्ञान से अधिक संबंध रखती है। उसकी रेखाएं निश्चित सिद्धांत तक पहुंचा देती हैं। संभवतः इसीलिए काव्य-समस्या-पूरण इत्यादि भी छंद- शास्त्र और पिगल के नियमों के द्वारा बनने के कारण उपविद्या-कला के अंतर्गत माना गया है । छंदशास्त्र काव्योपजीवी कला का शास्त्र है । इसलिए यह भी विज्ञान का शास्त्रीय विषय है। वास्तुनिर्माण, मूत्ति और चित्र शास्त्रीय दृष्टि से शिल्प कहे जाते हैं और इन सबकी विशेषता भिन्न-भिन्न होने पर भी, ये सब एक ही वर्ग की वस्तुएँ हैं। भवन्ति शिल्पिनो लोके चतुर्धा स्व स्व कर्मभिः । स्थपितः सूत्रग्राही च वर्धकिस्तक्षकस्तथा ॥ (मयमतम्, ५ अध्याय) चित्र के संबंध में भी- चित्राभासमिति ख्यातं पूर्वैः शिल्पविशारदः । (शिल्परत्न, अध्याय १६) इस तरह वास्तुनिर्माण, मूर्ति और चित्र-शिल्प-शास्त्र के अंतर्गत हैं । काव्य के प्राचीन आलोचक दंडी ने कला के संबंध में लिखा है-नृत्यगीत- प्रभृतयः कलाकामार्थसंश्रयाः (३-१६२) नृत्य-गीत आदि कलाएं कामाश्रय कलाएं हैं। और इन कलाओं की संख्या भी वे चौसठ बताते हैं, जैसा कि कामशास्त्र या तंत्रों में कहा गया है। इत्थं कला चतुःषष्ठि विरोधः साधु नीयताम् (३-१११) । काव्यादर्श में दण्डी ने कला-शास्त्र के माने हुए सिद्धांतों में प्रमाद न करने के लिए कहा है, अर्थात् - -काव्य में यदि इन कलाओं का कोई उल्लेख हो तो उसी कला के मतानुसार । इससे प्रक्ट हो जता है कि काव्य और कला भिन्न वर्ग की वस्तुएं है । 'न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला' (१-१७१ भरत नाट्यम्) की व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त कहते हैं-कला गीतवाद्यादिकाः । इसी से गाने- बजाने वालों को अब भी कलावंत कहते हैं । भामह ने भी जहाँ काव्य का विषय संबंधी विभाग किया है, वहाँ वस्तु के चार भेद मानते हैं -देव-चरित शंसि, उत्पाद्य, कलाश्रय और शास्त्राथय । यहाँ भामह का तात्पर्य है कि कला संबंधी विषयों को लेकर भी काव्य का विस्तार होता है। ४ काव्य और कला : ४९
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