'स्व' को कलन करने का उपयोग-आत्म-अनुभूति की व्यंजना में-प्रतिभा के द्वारा तीन प्रकार से किया जाता है; अनुकूल, प्रतिकूल और अद्भुत । से तीन प्रकार के प्रतीक-विधान काव्य-जगत् मे दिखाई पड़ते हैं। अनुकूल, अर्थात् ऐसा 'हो-यह आत्मा के विज्ञात अंश का गुणनफल है। प्रतिकूल अर्थात् ऐसा नहीं, यह आत्मा के अविज्ञात अंश की सत्ता का ज्ञान न होने के कारण हृदय के समीप नहीं। अद्भुत -आत्मा का विजिज्ञास्य रूप, जिसे हम पूरी तरह समझ नही सके हैं, कि वह अनुकूल है या प्रतिकूल। इन तीन प्रकार के प्रतीक विधानों में आदर्शवाद, यथातथ्यवाद और व्यक्तिवाद इत्यादि साहित्यिक वादों के मूल सन्निहित है जिनकी विस्तृत आलोचना की यहाँ आवश्यकता नही। कला को तो शास्त्रों में उपविद्या माना है । फिर, उसका साहित्य में या आत्मानुभूति मे कैसा विशेष अस्तित्व है, इस प्रश्न पर विचार करने के समय यह बात ध्यान में रखनी होगी कि कला की आत्मानुभूति के साथ विशिष्ट भिन्न सत्ता नही। अनुभूति के लिए शब्द-विन्यास- कोशल तथा छंद आदि भी अत्यंत आवश्यक नही । व्यंजना वस्तुतः अनुभूतमयी प्रतिभा का स्वयं परिणाम है क्योकि सुंदर अनुभूति का विकाम सौंदर्यपूर्ण होगा ही। कवि की अनुभूति को उसके परिणाम में हम अभिव्यक्त देखते है। और अभिव्यक्ति के अंतरालवर्ती संबंध को जोड़ने के लिए हम चाहें तो कला का नाम ले सकते है, और कला के प्रति अधिक पक्षपातपूर्ण विचार करने पर यह कोई कह सकता है कि अलंकार, वक्रोक्ति और रीति और कथानक इत्यादि मे कला की सत्ता मान लेनी चाहिये, किंतु मेरा मत है कि यह सब समय- समय की मान्यता और धारणाएं है। प्रतिभा का किसी कौशल क्ोिप पर कभी अधिक झुकाव हुआ होगा। इसी अभिव्यक्ति के बाह्य रूप को गला के नाम से काव्य में पकड़ रखने की साहित्य मे प्रथा-सी चल पड़ी है। हाँ, फिर एक प्रश्न स्वयं खड़ा होता है कि काव्य में शुद्ध आत्मानुभूति की प्रधानता है या कौशलमय आकारों या प्रयोगों की ? काव्य में जो आत्मा की मौलिक अनुभूति की प्रेरणा है, वही सौदर्यमयी और संकल्पात्मक होने के कारण अपनी श्रेयस्थिति में रमणीय आकार में प्रकट होती है। वह आकार वर्णात्मक रचना-विन्यास मे कौशलपूर्ण होने के कारण 'प्रेय भी होता है । रूप के आवरण में जो वस्तु सन्निहित है, वही तो प्रधान होगी। इसका एक उदाहरण दिया जा सकता है । कहा जाता है कि वात्सल्य की अभिव्यक्ति में तुलसीदास सूरदास से पिछड़ गये हैं। तो क्या यह मान लेना पड़ेगा कि तुलमीदास के पास वह कौशल द-विन्यास-पटुता नहीं थी, जिसके अभाव के कारण ही वे वात्सल्य की संपूर्ण अभिव्यक्ति नही कर मके । किंतु यह बात तो नही है। सोलह मात्रा के छंद में अंतर्भादों को प्रकट करने या शब्द- ५२ : प्रसाद वाङ्मय
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