पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१५३

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की जो विदग्धता उन्होने दिखाई है, वह कविता-संसार मे विरल है। फिर क्या कारण है कि रामचंद्र के वात्सल्य-रस की अभिव्यंजना उतनी प्रभावशालिनी नहीं हुई, जितनी सूरदास के श्याम की ? मैं तो कहूँगा कि यही प्रमाण है आत्मानुभूति की प्रधानता का। सूरदास के वात्सल्य में संकल्पात्मक मौलिक अनुभूति की तीव्रता है, उस विषय की प्रधानता के कारण । श्रीकृष्ण की महाभारत के युद्ध-काल की प्रेरणा सूरदास के उतने ममीप न थी, जितनी शिशु गोपाल की वृदावन की लीलाएं। रामचंद्र के वात्सल्य-रस का उपयोग प्रबंध काव्य में तुलसीदास को करना था, उस कथानक की क्रम-परंपरा बनाने के लिए। तुलसीदास के हृदय मे वास्तविक अनुभूति तो रामचंद्र की भक्त-रक्षण-समर्थ दयालुता है, न्यायपूर्ण ईश्वरता है, जीव की शुद्धावस्था मे पाप-पुण्य-निर्लिप्त कृष्णचंद्र की शिशु-मूर्ति का शुद्धाद्वैतवाद नहीं । दोनों कवियों के शब्द-विन्यास कौशल पर विचार करने से यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि जहां आत्मानुभूति की प्रधानना है वही अभिव्यक्ति अपने क्षेत्र मे पूर्ण हो सकी है। वही कौशल या विशिष्ट पद-रचना-युक्त काव्य-शरीर सदर हो सका है। इसीलिए, अभिव्यक्ति सहृदयों के लिए अपनी वैसी व्यापक सना नही रखती, जितनी कि अनः । श्रोता, पाठक और दर्शको के हृदय मे कविकृत मानसी प्रतिमा की जो अनुभूति होती है, उसे सहदयों में अभिव्यक्ति नहीं कह सकते। वह भाय- साम्य का कारण होने से लौट कर अपने कवि की अनुभूतिवाली मौलिक वस्तु की महानुभूतिमात्र ही रह जाती है । इमलिए व्यापकता आत्मा की संकल्पात्मक मूल 'अनुभूति की है। १. अनुभूति से तादात्म्य की परिणति के प्रत्यक्षदर्शी प्रोफेमर बी० एल० साहनी ने कहा था कि कामायनी के अंग्रेजी भाषान्तरण के सन्दर्भ मे उनसे एकान्त मे कुछ समझने का समय उप काल मे ही संभव था वे अरुणो 'य के संग बेनियावाग मे घूमने निकल पड़त थे । वह अवसर भी उपयुक्त नही था। तब, मैं उनके यहां और पहले पहूँच जाता मुझे देख कर वे आशय समझ जाते- 'चलो आज गगा दर्शन होगा'। उसी क्रम मे एक दिन लौटते समय सीढ़ियो पर भिक्षुओ को पंक्ति मे एक विकलाग गलिन कुष्ठ वाले के सम्मुख बे रुक कर उमे ध्यान से देखने लगे। मैंने समझा कि उसे कुछ देने के लिए रुके है किन्तु वे निश्चय रहे सहसा मेरी ओर एक हाथ बढाते बोले 'साहनी मेरी उंगलियों देखो' -देखते ही मैं स्तब्ध रह गया कुछ भय भी लगा उनकी उगलियां उसी कोढी की जैसी टेढ़ी हो रही थी। घबराहट मे उन्हे खीचते ऊपर ले आया। वे सौम्य भाव से बोले कोई आतंक नही-अनुभूति से तादात्म्य मे ऐसा प्रायः होता है अन्यथा अभिव्यक्ति कैसे हो । क्रोशे ने यह नहीं समझा । वस्तुतः प्रसादजी मे अनुभूति की स्फूर्ति अधि-आत्म से अधि-भूत उभय स्तरो पर सहज होती थी As if that was a pait & parcal of his being. og at afarta साधारणीकरण की बात है, सामान्य स्तर पर भी 'भ्रमर कीट न्याय' आन्वित हो जाता है 'भावितं तीव्र वेगेन यद्वस्तु निश्चयात्मना (संकल्प) पुमांस्तद्विभवे- च्छीघ्रं ज्ञेयं भ्रमरकीटवत्' । -सम्पादक काव्य और कला : ५३