ठीक मेसोपोटामिया से आया है, यह कहना वैसा ही है जैसा वेदों को 'सुमेरियन डाकुमेंट' सिद्ध करने का प्रयास ।' शैवों का अद्वैतवाद और उनका सामरस्यवाला रहस्य-संप्रदाय, वैष्णवों का माधुर्य भाव और उनके प्रेम का रहस्य तथा काम-कला की सौंदर्य-उपासना आदि का उद्गम वेदों और उपनिषदों के ऋषियों की वे साधना-प्रणलियां हैं, जिनका उन्होंने समय-समय पर अपने पंथों में प्रचार किया था। भारतीय विचारधारा में रहस्यवाद को स्थान न देने का एक मुख्य कारण है। ऐसे आलोचकों के मन में एक तरह की झुंझलाहट है। रहस्यवाद के आनंद-पथ को उनके कल्पित भारतीयोचित विवेक में सम्मिलित कर लेने से आदर्शवाद का ढांचा ढीला पड़ जाता है। इसलिए वे इस बात को स्वीकार करने में डरते हैं कि जीवन में यथार्थ वस्तु आनंद है, ज्ञान से वा अज्ञान से मनुष्य उसी की खोज में लगा है। आदर्शवाद ने विवेक के नाम पर आनंद और उसके पथ के लिए जो जनरव फैलाया है, वही उसे अपनी वस्तु कहकर स्वीकार करने में वाधक है। किंतु प्राचीन आर्य लोग सदैव से अपने क्रिया-कलाप में आनंद, उल्लास और प्रमोद के उपासक रहे; और आज के भी अन्य देशीय तरुण आर्य-संघ आनंद के मूल संस्कार से संस्कृत और दीक्षित हैं। आनंद-भावना, प्रियकल्पना और प्रमोद हमारी व्यवहार्य वस्तु थी। आज की जातिगत निर्वीर्यता के कारण उसे ग्रहण न कर सकने पर, यह मेमेटिक है, कह कर संतोप कर लिया जाता है। कदाचित् इन आलोचकों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि आरंभिक वैदिक- काल में प्रकृति-पूजा अथवा बहुदेव- व-उपासना के युग में ही, जब 'एक सद्विप्रा बहुधा वदंति' के अनुसार एकेश्वरवाद विकसित हो रहा था; तभी आत्मवाद की प्रतिष्ठा भी पल्लवित हुई। इन दोनों धाराओं के दो प्रतीक थे। एकेश्वरवाद के वरुण और आत्मवाद के इंद्र प्रतिनिधि माने गये। वरुण न्यायपति राजा और विवेकपक्ष के आदर्श थे। महावीर इंद्र आत्मवाद और आनंद के प्रचारक थे। वरुण को देवताओं के अधिपति-पद से हटना पड़ा, इंद्र के आत्मवाद की प्रेरणा ने आर्यों में आनंद की विचारधारा उत्पन्न की, फिर तो इंद्र ही देवराज-पद पर प्रतिष्ठित हुए। वैदिक- माहित्य में आत्मवाद के प्रचारक इंद्र की जैसी चर्चा है, उर्वशी आदि अप्सराओं का जो प्रसंग है, वह उनके आनंद के अनुकूल ही है। बाहरी याज्ञिक क्रिया-कलापों के रहते हुए भी वैदिक आर्यों के हृदय में आत्मवाद और एकेश्वरवाद की दोनों दार्शनिक विचार-धाराएं अपनी उपयोगिता में संघर्ष करने लगी। सप्तसिंधु के प्रबुद्ध तरुण आर्यो ने इस आनंदवाली धारा का अधिक स्वागत किया। क्योंकि वे स्वत्व के १. अवलोक्य-इलस्ट्रेटेड वीकली में डॉ० प्राणनाथ विद्यालंकार का लेख --- 'Vedas a Sunerian document.' -सम्पादक ५६: प्रसाद वाङ्मय
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