पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१५७

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उपासक थे ! और वरुण यद्यपि आर्यो की उपासना मे गौण रूप से सम्मिलित थे, तथापि उनकी प्रतिष्ठा असुर के रूप मे असीरिया आदि अन्य देशों में हुई। आत्मा मे आनंद-भोग का भारतीय आर्यो ने अधिक आदर किया। उधर असुर के अनुयायी आर्य एकेश्वरवाद और विवेक के प्रतिष्ठापक हुए। भारत के आर्यो ने कर्मकांड और बड़े-बड़े यज्ञो मे उल्लासपूर्ण आनंद का ही दृश्य देखना आरंभ किया और आत्मवाद के प्रतिष्ठापक इंद्र के उद्देश्य से बडे-बडे यज्ञों की प्रधानता हो जाने पर भी कुछ आर्य लोग अपने को उस आर्य-मंघ में दीक्षित नही कर मके--वे व्रात्य कहे जाने लगे। वैदिक धर्म की प्रधान धारा मे, जिसके अंतर मे आत्मवाद था और बाहर याज्ञिक क्रियाओं का उल्लास था, व्रात्यों के लिए स्थान नहीं रहा। उन व्रात्यों ने अत्यंत प्राचीन अपनी चैत्यपूजा आदि के रूप मे उपामना का क्रम प्रचलित रक्खा और दार्शनिक दृष्टि से उन्होने विवेक के आधार पर नये-नये तर्को की उद्भावना की। फिर तो आत्मवाद के अनुयायियो मे अग्निहोत्र आदि वर्मकांडो की आत्मपरक व्याख्याएं होने लगी। उन्होने स्वाध्याय-मंडल स्थापित किये । भारतवर्ष का राजनीतिक विभाजन भी वैदिक-काल के बाद इन्ही दो तरह के दार्शनिक धर्मो के आधार पर हु" होता आ रहा है ० सपादत) वृष्णि-संघ ब्रज मे और मगध के व्रात्य और अपाज्ञिा आर्य बुद्धिवाद के आधार पर नये-नये दर्शनो की स्थापना करने लगे। इन्ही लोगों के उत्तराधिकारी वे तीर्थकर लोग थे जिन्होने ईसा मे हजारों वर्ष पहले मगध मे बौद्धिक विवेचना के आधार पर दुखवाद के दर्शन की प्रतिष्ठा की। मूक्ष्म दृष्टि से देखने पर विवेक के तर्क ने जिस बुद्धिवाद का विकास किया, वह दार्शनिको की उस विचारधारा को अभिव्यक्त कर सका जिसमे मंसार दुखमय माना गया और दुःख से छूटना ही परम पुरुषार्थ ममझा गया । दुःखनिवृत्ति दुखवाद का ही परिणाम है । फिर तो विवेक की मात्रा यहाँ तक बढी कि बुद्धिवादी अपरिग्रही, नग्न, दिगंबर, पानी गरम करके पीने वाले और मुंह पर कपडा बाध कर चलनेवाले हुए। इन लोगों के आचरण विलक्षण और भिन्न-भिन्न थे। दैदिक-काल के बाद इन व्रात्यों के संघ किस-किस तरह का प्रचार करते घूमते थे, उन सब का उल्लेख तो नहीं मिलता; किंतु बुद्ध के जिन प्रतिद्वंद्वी-मस्करी गोशाल, अजित केश-कम्बली, नाथपुत्र, संजय बेलट्ठिपुत्र, पूरन कस्सप आदि तीर्थकरो का उल्लेख मिलता है, वे प्रायः दु खातिरेकवादी, आत्मवाद मे आस्था न रखनेवाले तथा बाह्य उपासना में चैत्यपूजक थे। दुःखवाद जिस मनन- शैली का फल था, वह बुद्धि या विवेक के आधार पर, तर्को के आश्रय में बढ़ती रही । अनात्मवाद की प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए । । नत पिछले काल मे भारत के दार्शनिक अनात्मवादी ही भक्तिवादी बने और बुद्धिवाद का विकास भक्ति के रूप में हुआ। जिन-जिन लोगो में आत्म-विश्वास नही था, उन्हें एक प्राणकारी की रहस्यवाद : ५७