कोसल मे उनकी परिषदे थी ही, किंतु मगध की पूर्वीय सीमा पर भी उसके दुःस और अतात्मवादी राष्ट्रो के एक छोर पर विदेहों की बस्ती पी, जो संपूर्ण अद्वैतवादी थे। ब्राह्मण-ग्रंथ मे सदानीरा के उस पार यज्ञ की अग्नि न जाने की जो कया है उसका रहस्य इन्ही मगध के व्रात्य-संघो से सबध रखता था। किंतु माधव विदेह ने सदानीरा के पार अपने मुख मे जिस अग्नि को ले जाकर स्थापित किया था, वह विदेहो का प्राचीन आत्मवाद ही था। इन परिषदो मे और स्वाध्यायमंडलो मे वैदिक मंत्रकाल के उत्तराधिकारी ऋषियो ने सकल्पात्मक ढंग से विचार किया, सिद्धात बनाये और साधना-पद्धति भी स्थिर की। उनके सामने ये सब प्रश्न आये- केनेषित पतति प्रेषितं मनः केन प्राण. प्रथम प्रति युक्तः । केनेषिता वाचमिमा वदन्ति चक्षु श्रोत्र क उ देवो युनक्ति ॥ (केनोपनिषद्) कि कारण ब्रह्म कुत स्म जाता जीवाम केन क्व च सप्रतिष्ठाः । अधिष्ठाता केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद्) इन प्रश्नो पर उनके सवाद अनुभवगम्य आत्मा को सकरपात्मक रूप से निर्देशन करने के लिए होते थे। इस तरह के विचारो का सूत्रपात शुक्ल यजुर्वेद के ३९ और ४० अध्यायो मे ही हो चुका था। उपनिषद उसी ढग से आत्मा और अद्वैत के सबध मे सकल्पात्मक विचार कर रहे थे, यहाँ तक कि श्रुतियां सकल्पात्मक काव्यमय ही पी और इसीलिए वे लोग 'कविर्मनीषी' मे भेद नही मानते थे। किंतु ब्रात्य-संघो के बाह्य आदर्शवाद से, विवेक और बुद्धिवाद से भारतीय हृदय बहुत कुछ अभिभूत हो रहा था, इसीलिए इन आनदवादियो की साधना-प्रणाली कुछ-कुछ गुप्त और रहस्यात्मक होती थी। तप प्रभावाद्देवप्रसादाच्च ब्रह्म ह श्वेताश्वतरोऽथ विद्वान् । अत्याश्रमिभ्यः परम पवित्रम् प्रोवाच सम्यगृषिसंघजुष्टम् ।। वेदान्ते गुह्य पुराकल्पे प्रचोदितम् । नाप्रशान्ताय दातव्य नापुत्राय नाशिष्याय वा पुनः ॥ (श्वेताश्वतर०) उनकी साधन-पद्धतियो का उल्लेख छादोग्य-आदि उपनिषदो मे प्रचुरता से है। ये लोग अपनी शिष्यमडली मे विशेष प्रकार की गुप्त साधना-प्रणालियो के प्रवर्तक थे। बौद्ध साहित्य मे जिस तरह के साधनो का विवरण मिलता है, वे बहुत-कुछ इन ऋषियो और इनके उपनिषदो के अनुकरण-मात्र थे, फिर भी वे अपने ढंग के बुद्धिवादी थे। और वे उपनिषदो के 'ता योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणम्' परम रहस्यवाद:५९
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