पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१५८

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आवश्यकता हुई। प्रणतिवाली शरण खोजने की कामना-बुद्धिवाद की एक धारा- प्राचीन एकेश्वरवाद के आधार पर ईश्वर-भक्ति के स्वरूप में बढ़ी और इन लोगों ने अपने लिए अवलंब खोजने में नये-नये देवताओं और शक्तियों की उपासना प्रचलित की। हाँ, आनंदवाद वाली मुख्य अद्वतधारा में भक्ति का विकास, एक दूसरे ही रूप में हो चुका था, जिसके संबंध में आगे चलकर कहा जायगा। ऊपर कहा जा चुका है कि वैदिक-साहित्य की प्रधान धारा में उसकी याज्ञिक क्रियाओं की आत्मपरक व्याख्याएं होने लगी थीं और वात्यदर्शनों की प्रचुरता के युग में भी आनंद का सिद्धांत संहिता के बाद श्रुतिपरंपरा में आरण्यक-स्वाध्याय मंडलों में प्रचलित रहा । तैत्तिरीय में एक कथा है कि भृगु जब अपने पिता अथवा गुरु वरुण के पास आत्म-उपदेश के लिए गये तो उन्होंने बार-बार तप करने की ही शिक्षा दी और बार-बार तप करके भी भृगु संतुष्ट न हुए और फिर आनंद-सिद्धांत की उपलब्धि करके ही उन्हें परितोष हुआ। विवेक और विज्ञान से भी आनंद को अधिक महत्व देनेवाले भारतीय ऋषि अपने सिद्धांत का परंपरा में प्रचार करते ही रहे। तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात् । अन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः । तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधताम् । अन्वयं पुरुषविधः । तस्य प्रियमेव शिरः । मोदो दक्षिणः पक्षः। प्रमोद उत्तरः पक्ष.। आनन्द आत्मा। (तैत्तिरीय उपनिषद् द्वितीय वल्ली पंचम अनुवाक्) उपनिषद् में आनंद की प्रतिष्ठा के साथ प्रेम और प्रमोद की भी कल्पना हो गयी थी, जो आनंद-सिद्धांत के लिए आवश्यक है । इस तरह जहां एक ओर भारतीय आर्य व्रात्यों में तर्क के आधार पर विकल्पात्मक बुद्धिवाद का प्रचार हो रहा था, वहाँ प्रधान वैदिक-धारा के अनुयायी आर्यों में आनंद का सिद्धांत भी प्रचारित हो रहा था। वे कहते थे : नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । (मुण्डकोपनिषद्) नषा तर्केण मतिरापनेया। (कठोपनिषद्) मानंदमय आत्मा की उपलब्धि विकल्पात्मक विचारों और तर्को से नहीं हो सकती। इन लोगों ने अपने विचारों के अनुयायी राष्ट्रों में परिषदें स्थापित की थी और व्रात्य-संघों के सदृश ही इनके भी स्वाध्यायमंडल थे, जो व्रात्य-संघों से पीछे के नहीं अपितु पहले के थे। हाँ, इन लोगों ने भी बुद्धिवाद का अपने लिए उपयोग किया पा; किंतु उसे वे अविद्या कहते थे, क्योंकि वह कर्म और विज्ञान की उन्नति करती है और नानात्व को बताती है। मुख्यतः तो वे अद्वैत और आनंद के ही उपासक रहे । विज्ञानमय पाशिक क्रिया-कलापों से वे ऊपर उठ चुके थे। कठ, पांचाल, काशी और ५८:प्रसाद वाङ्मय