इन आगम के अनुयायी मिद्धों ने प्राचीन आनंद-मार्ग को अद्वैत की प्रतिष्ठा के साथ अपनी साधना-पाति में प्रचलित रक्खा और इसे वे रहस्य-सप्रदाय कहते थे। शिवसूत्रविमर्शिनी प्रस्तावना मे क्षेमराज ने लिखा है द्वैतदर्शनाधिवासितप्राये जीवलोके रहस्यसम्प्रदायो मा विच्छेदि रहस्य-सम्प्रदाय जिसमे लुप्त न हो, इसलिए शिवसूत्रो की महादेवगिरि से प्रतिलिपि की गयी । द्वैतदर्शनो की प्रचुरता थी। रहस्य-सप्रदाय अद्वैतवादी था। इन लोगो ने पाशुपात-योग की प्राचीन माधन-पद्धति के साथ-साथ आनद की योजना करने के लिए काम-उपासना प्रणाली भी हाटात के रूप में स्वीकृत की। उसके लिए भी श्रुति का आधार लिया गया। तद्यथा प्रियया स्त्रिया सपरिवक्तो न बाह्य किंचन वेद नातरम् (बृहदारण्यक) उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्ताव स्त्रिया सह शेते स उद्गीथ । आरगरतिरात्मक्रीड. आत्ममिथुन आत्मानन्द स स्वराड् भवति । इन छादोग्य आदि श्रुतियो के प्रकाश मे यह रति-प्रीति-अद्वैतमूला भक्ति रहस्यवादियो मे निरतर प्राजन होती गयी। इस दार्शनिक सत्य को व्यावहारिक रूप देने मे किसी अनाचार की आवश्यकता न थी। ससार तो मिथ्या मानकर अगनव कल्पना के पीछे भटकना नही पउना था। दुग्ववाद से उत्पन्न सन्यास और मसार से विराग की आवश्यक्ता न थी। अद्वैतमूलक रम्यवाद के व्यावहारिक रूप मे विश्व को आत्मा का अभिन ग शैवागमो म मान लिया गया था। फिर तो सहज आनद की कल्पना भी इन लोगो ने की। श्रुति इसी कोटि के साधको के लिए पहले ही कह चुकी थी. या बुद्वयते सा दीक्षा नाति तद्धवि यत्पिबति तदस्य सोपमान यद्रमते तदुपसदो""। इसी का अनुकरण है- आत्मा त्व गिरिजा मति सहचरा प्राणा शरीर गृह पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रासमाधिस्थिति (सावरी मानसपूजा) मौदर्यलहरी भी उसी स्वर मे कहती है - सपर्या पर्यायस्तव भवति यन्मे विलसितम् । (२७) रन साधको मे जगत् और अतरात्मा की व्यावहारिक अद्वयता मे आनंद की सहज भावना विकसित हुई । वे कहते है- त्वमेव स्वात्मान परिणमयितु विश्ववपुषा । चिदानदाकार शिवयुवनिभावन विमपे । (आनदलहरी, ३५) पिसी काश्मीरी भक्त कवि ने कहा है १. सग्रह स्तो। ८-आचार्य उत्पल । (म०) रहस्यवाद :६१
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