पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१६२

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तत्तदिद्रियमुखेन संततं युष्मदर्चनस्सायनासवम् । सर्वभावचषकेषु पूरितेष्वापिवन्नपि भवेयमुन्मदः॥ इसमें इंद्रियों के मुख से अर्चन-रस का आसव पीने की जो कल्पना है, वह आनंद की सहज भावना से ओत-प्रोत है । आगमानुयायी स्पंदशास्त्र के अनुसार प्रत्येक भावना में, प्रत्येक अवस्था में वह आत्मानंद प्रतिष्ठित है- अतिक्रुद्धः प्रहृष्टो वा किं करोति परामृशन् । धावन् वा यत्पदं गच्छेत्तत्र स्पंदः प्रतिष्ठितः । और, उनकी अद्वैत साधना के अनुसार सब विषयों में-इंद्रियों के अर्थों में- निरूपण करने पर कही भी अशिव, अमंगल, निरानंद नहीं- विषयेषु च सर्वेषु इंद्रियार्थेषु च स्थितम् । यत्र यत्र निरूप्येत नाशिवं विद्यते क्वचिन् । जिस मन को बुद्धिवादी 'मनोदुनिग्रहं चलम्' समझ कर ब्रह्म-पथ में विमूढ़ हो जाते हैं उसके लिए आनंद के उपासकों के पास सरल उपाय था। वे कहते हैं- पत्र यत्र मनो याति ज्ञेयं तत्रैव चितयेत् । चलित्वा यास्यते कुत्र सर्व शिवमयं यतः ॥ मन चल कर जायगा कहाँ ? बाहर-भीतर आनंदघन शिव के अतिरिक्त दूसरा स्थान कौन है? ये विवेक और आनंद की विशुद्ध धाराएं अपनी परिणति में अनात्म और दुःखमय कर्मवादी बौद्ध हीनयान-संप्रदाय तथा दूसरी ओर आत्मवादी आनंदमय रहस्य-संप्रदाय के रूप में प्रकट हुई। इसके अनंतर मिश्र विचारधाराओं की सृष्टि होने लगी। अनात्मवाद से विचलित होकर बुद्ध में ही सत्ता मान कर बौद्धों का एक दल महायान का अनुयायी बना। शुद्ध बुद्धिवाद के बाद इसमें कर्मकांडात्मक उपासना और देवताओं की कल्पना भी सम्मिलित हो चली थी। लोकनाथ-आदि देवी-देवताओं की उपासना कोरा शून्य ही नहीं रह गयी। तत्कालीन साधारण आर्य जनता में प्रचलित वैदिक बहुदेवपूजा से शून्यवाद का यह समन्वय ही महायान- संप्रदाय था। और बौद्धों की तरह वैदिक धर्मानुयायियों की ओर से सो समन्वयात्मक प्रयत्न हुआ, उसी ने ठीक महायान की ही तरह पौराणिक-धर्म की सृष्टि की। इस पौराणिक-धर्म के युग में विवेकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक रामचंद्र के रूप में अवतरित हुआ, जो केवल अपनी मर्यादा में और दुःखसहिष्णुता में महान रहे । किंतु पौराणिक युग का सबसे बड़ा प्रयत्न श्रीकृष्ण के पूर्णावतार का निरूपण था। इनमें गीता का पक्ष जैसा बुद्धिवादी था वैसा ही अजलीला और द्वारका का ऐश्वयंभोग आनंद से संबद्ध था। ६२: प्रसाद वाङ्मय