पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१६७

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उमत सबरो.पागल सबरो माकर गुली गुहाउर । तोहोरि णिय धरिणी णामे सहज सुंदरी ॥ (शबरपा) ऊपरवाला पद्य शबरी रागिनी में है। संभवतः शबरी रागिनी आसावरी का पहला नाम है। सिद्ध लोग अपनी साधना में संगीत की योजना कर चुके थे। नादानुसंधान की आगमोक्त साधना के आधार पर बाह्य नाद का भी इनकी साधना में विकास हुआ था, ऐसा प्रतीत होता है। 'अनुन्मत्ता उन्मत्तवदाचरन्तः' सिद्धों ने आनंद के लिए संगीत को भी अपनी उपासना में मिला कर जिस भारतीय संगीत में योग दिया है, उनमें भरत मुनि के अनुसार पहले ही से नटराज के संगीतमय नृत्य का मूल था। सिद्धों की परंपरा में संभवतः बैजू बावरा आदि संगीतनायक थे, जिन्होंने अपने ध्रुपदों में योग का वर्णन किया है। इन सिद्धों ने ब्रह्मानंद का भी परिचय प्राप्त किया था। सिद्ध भुसुक कहते हैं- विरमानंद विलक्षण सूध जो येथू दूझै सो येथु बूध । भुसुक भणइ मह बूझिय मेले सहजानंद महासुह लेलें ॥ इन लोगों ने भी वेद, पुराण और आगमों का कबीर की तरह तिरस्कार किया है । कदाचित् पिटले काल के संतों ने इन सिद्धों का ही अनुकरण किया है । आगम वेद पुराणे पंडिठ मान बहन्ति । पक्क सिरिफल अलिय जिमबाहेरित भ्रमयन्ति ।। (कण्हपा) आगमों में ऋग्वेद के काम की उपासना कामेश्वर के रूप में प्रचलित थी और उसका विकसित स्वरूप परिमार्जित भी था। वे कहते थे जायया संपरिष्वक्तो न बाह्य वेद नांतरम् । नि.र्शनं श्रुतिः प्राह मूर्खस्तं मन्यते विधिम् ॥ फिर भी सहजानंद के पीछे बौद्धिक गुप्त कर्मकांड की व्यवस्था भयानक हो चली थी और वह रहस्यवाद की बोधमयी सीमा को उच्छृखलता से पार कर चुकी थी। हिन्दी के इन आदि रहस्यवादियों को, आनंद के सहज साधकों को, बुद्धिवादी निर्गुण संतों को स्थान देना पड़ा । कबीर इसी परंपरा के सबसे बड़े कवि हैं । कबीर में विवेकवादी राम का अवलंब है और संभवतः वे भी 'साधो सहज समाधि भली' इत्यादि में सिद्धों की सहज भावना को ही, जो उन्हें आगमवादियों से मिली थी, दोहराते हैं । कवित्व की दृष्टि से भी कबीर पर सिद्धों की कविता की छाया है। उन पर कुछ मुसलमानी प्रभाव भी पड़ा अवश्य; परंतु शामी पैगंबरों से अधिक उनके समीप थे वैदिक ऋषि, तीर्थकर, नाथ और सिद्ध । कबीर के बाद तथा कुछ-कुछ समकाल में ही कृष्णवाली मिश्र रहस्य की धारा आरंभ हो चली थी। निर्गुण राम और सुधारक रहस्यवाद के साथ ही तुलसीदास के सगुण समर्थ राम का भी वर्णन सामने आया। कहना असंगत न होगा कि उस समय हिंदी-साहित्य में रहस्यवाद की 1 रहस्यवाद : ६७