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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१६८

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इतनी प्रबलता थी कि स्वयं तुलसीदास को भी अपने महाप्रबंध में रहस्यात्मक संकेत रखना पड़ा। कदाचित् इसीलिए उन्होंने कहा है--अस मानस मानस चख चाही। किंतु कृष्णचंद्र में आनंद और विवेक का, प्रेय और सौंदर्य का सम्मिश्रण था। फिर तो ब्रज के कवियों ने राधिका-कन्हाई-सुमिरन के बहाने आनंद की सहज भावना परोक्षभाव में की। मीरा और सूरदास प्रेम के रहस्य का साहित्य-संकलन किया। देव, रसखान, धनआनंद इन्हीं के अनुयायी थे। मीरा ने कहा- सूली ऊपर सेज पिया की, किस विधि मिलणो होय । यह प्रेम, मिलन की प्रतीक्षा में-सदेव विरहोन्मुख रहा। देव ने भी कुछ इसी धुन में कहना चाहा-- हो ही व्रज वृदावन मोहिं में वसत सदा जमुना तरंग स्याम रंग अवलीन की। चहुँ ओर सुंदर मघन वन देखियत, कुंजन मे सुनियत गुंजन अलीन की ।। बंसीवट-तट नटनागर नटत मो में, रास के विलाम की मधुर धुनि बीन की। भर रही भनक बनक ताल तानन की तनक तनक ता में खनक चुरीन की। परंतु वे वृदावन ही बन मके, श्याम नही। यह प्रेम का रहस्यवाद विरह-दुख से अधिक अभिभूत रहा। यद्यपि कुछ लोगो ने इममे सहज आनंद की योजना भी की थी और उममें माधुर्य-महाभाव के उज्ज्वल नीलमणि को परकीय प्रेम के कारण गोप्य और रहस्यमूलक बनाने का प्रपन भी दिया था, परंतु द्वैनमूलक होने के कारण तथा बाह्य आवरण मे बुद्धिवादी होने से यह विषय में साहित्यिक ही अधिक रहा । निर्गण मंप्रदायवाले संतो ने भी राम की बहुरिया वन कर प्रेम और विरह की कल्पना कर ली थी; किंतु सिद्धों की रहस्य-संप्रदाय की परंपरा में तुकनगिरि और रसालगिरि आदि ही शुद्ध रहस्यवादी कवि लावनी मे आनंद और अद्वयता की धारा बहाते रहे । साहित्य में विश्वमुंदरी प्रकृति में चेतनता का आरोप संस्कृत-वामय मे प्रचुरता से उपलब्ध होता है। यह प्रकृति अथवा शक्ति का रहस्यवाद, आनंद-लहरी के 'शरीरं त्वं शंभो' का अनुकरण-मात्र है। वर्तमान हिन्दी में इस अद्वैत रहस्यवाद की सौंदर्यमयी व्यंजना होने लगी है, वह माहित्य मे रहस्यवाद का स्वाभाविक विकास है। इसमें अपरोक्ष अनुभूति, समरमना तथा प्राकृतिक सौंदर्य के द्वारा अहं का इदम् से समन्वय करने का सुन्दर प्रयत्न है। हाँ, विरह भी युग की वेदना के अनुकूल मलन का साधन बन कर इसमें सम्मिलित है। वर्तमान रहस्यवाद की धारा भारत की निजी संपत्ति है, इममें संदेह नही। ६८: प्रसाद वाङ्मय