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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१७०

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को प्राप्त होती है । आनंद के अनुयायियों ने धार्मिक बुद्धिवादियों से अलग सर्वसाधारण मे आनंद के प्रचार करने के लिए नाट्य-रसों की उद्भावना की थी। हां, भारत में नाट्य-प्रयोग केवल कुतूहल-शांति के लिए ही नही था। अभिनव भारती में कहा है- "तदनेन पारमार्थिकम् प्रयोजनमुक्तमिति व्याख्यानम् सहृदयदर्पणे प्रत्यग्रहीत् यदाह-नमस्त्रलोक्यनिर्माणकवये शंभवे यतः ! प्रतिक्षणम् जगनाट्यप्रयोगरसिको जनः ! इति एवं नाट्यशास्त्रप्रवचनप्रयोजनम् ।" नाट्यशास्त्र का प्रयोजन नटराज शंकर के जगनाटक का अनुकरण करने के लिए पारमार्थिक दृष्टि से किया गया था। स्वयं भरत मुनि ने भी नाट्य-प्रयोग को एक यज्ञ के स्वरूप मे ही माना था। इज्यया चानया नित्यं प्रीयन्तां देवता इति (४ अध्याय) इधर विवेक या बुद्धिवादियो की वाङ्मयी धारा, दर्शनों और कर्मपद्धतियो तथा धर्मशास्त्रों का प्रचार करके भी, जनता के समीप न हो रही थी। उन्होंने पौराणिक कथानकों के द्वारा वर्णनात्मक उपदेश करना आरंभ किया। उनके लिए भी साहित्यिक व्याख्या की आवश्यकता हुई। उन्हे केवल अपनी अलंकारमयी सूक्तियो पर ही गर्व था; इसलिए प्राचीन रमवाद के विरोध में उन्होंने अलंकार मत खड़ा किया, जिसमे रीति और वक्रोक्ति इत्यादि का समावेश था। इन लोगो के पास रस-जैसी कोई आम्यंतरिक वस्तु न थी। अपनी साधारण धार्मिक कथाओ में वे काव्य का रग चढाकर सूक्ति, वाग्विकल्प और वक्रोक्ति के द्वारा जनता को आकृष्ट करने में लगे रहे । शिलालिन, कृशाश्व और भरत आदि के ग्रन्थ अपनी आलोचना और निर्माण-शैली की व्याख्या के द्वारा रस के आधार थे। अलकार की आलोचना और विवेचन के लिए भी उसी तरह के प्रयत्न हुए। भामह ने पहले काव्यशरीर का निर्देश किया और अर्थालंकार तथा शब्दालंकार का विवेचन किया। इनके अनुयायी दंडी ने रीति को प्रधानता दी। सौदर्थ-ग्रहण की पद्धति समझने के लिए वाग्विकल्पो के चारुत्व का अनुशीलन होने लगा । अलंकार का महत्त्व बढ़ा, क्योकि वे काव्य की शोभा मान लिये गये थे। पिछले काल मे तो वे कनक- कुडल की तरह आभूषण ही समझ लिये गये। काव्यालंकार सूत्रों मे ये आलोचक कुछ और गहरे उतरे और उन्होंने अलंकारो की व्याख्या सौदर्य-बोध के आधार पर करने का प्रयत्न किया। काव्यम् ग्राह्यमलंकारात्, सौदर्यमलंकारः- - इत्यादि से सौंदर्य की प्रतिष्ठा अलंकार मे हुई। काव्य के सौदर्य-बोध का आधार शब्दविन्यास-कौशल ही रहा। इसी को वे रीति कहते थे। 'विशिष्ट-पद-रचना रीतिः' से यह स्पष्ट है। रीति, अलंकार तथा वक्रोक्ति श्रव्य काव्यो के संबंध में विचार करने वालो के निर्माण थे, इसलिए आरंभ मे इन लोगों ने रस को भी एक तरह का अलंकार ही माना और उसे रसवद् अलकार कहते थे। अलंकार मत के रीति-ग्रन्थों के जितने लेखक हुए, उन्होंने ७०: प्रसाद वाङ्मय