पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१७१

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शब्दों को ही प्रधान मान कर अपने काव्य-लक्षण बनाये । "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्", 'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' इत्यादि। इन परिभाषाओं में शब्द और वाक्य ही काव्यरूप माने गये हैं। पंडितराज ने तो 'तददोषौ शब्दार्थों में से अर्थ का बहिष्कार करने का भी आग्रह किया है । शब्द-मात्र ही काव्य है, शब्द और अर्थ दोनों नहीं। भले ही उसमें से रमणीयार्थ निकलना आवश्यक हो, पर काव्य है शब्द ही। इन शब्द-विन्यास-कोशल का समर्थन करनेवालों को भी रस की आवश्यकता प्रतीत हुई; क्योंकि रस-जैसी वस्तु इनके काव्य-शरीर की आत्मा बन सकती थी। 'शृंगारतिलक' में स्वीकार किया गया है कि- प्रायो नाट्यं प्रति प्रोक्ता भरताद्यः रसस्थितिः यथामति मयाप्येषा काव्ये प्रतिनिगद्यते । आलंकारिकों के काव्य-शरीर या बाह्य-वस्तु से साहित्यिक आलोचना पूर्ण नही हो सकती थी। कहा जाता है कि 'अभिव्यंजनावाद अनुभूति या प्रभाव का विचार छोड़कर वाक्वैचित्र्य को पकड़ कर चला, पर वाक्वैचित्र्य दृश्य गंभीर वृत्तियों से कोई संबंध नहीं, वह केवल कुतूहल उत्पन्न करता है । तब तो यह मानना पड़ेगा कि विशिष्ट-पद-रचना-रीति और वक्रोक्ति को प्रधानता देनेवाले अलंकारवादी भामह, दंडी, वामन और उद्भट आदि अभिव्यंजनावादी ही थे। साहित्य में विकल्पात्मक मनन-धारा का प्रभाव इन्ही अलंकारवादियों ने उत्पन्न किया तथा अपनी तर्क-प्रणाली शास्त्र की स्थापना की; किन्तु संकल्पात्मक अनुभूति की वस्तु रस का प्रलोभन, कदाचित् उन्हें अभिनव गुप्त की ओर से ही मिला । उन्होंने रस के संबंध में ध्वन्यालोक की टीका में लिखा है-- 'काव्येऽपि लोकनाट्यर्मिस्थानीये स्वभावोक्तिवक्रोक्तिप्रकारद्वयेनालौकिक- प्रसन्नमधुरोजस्विशब्द समlमाण विभावादियोगादियमेव रसवार्ता । अस्तु वा नाट्या- द्विचित्ररूपा रसप्रतीतिः ।' रस को अपनाकर भी इन बुद्धिवादी तार्किकों ने अपने पाडित्य के बल पर उसके संबंध में नये-नये वाद खड़े किये । रस किसे कहते हैं, उसकी व्यापार-सीमा कहाँ तक है, वह व्यंग्य है कि वाच्य, इस तरह के बहुत-से मतभेद उपस्थित हुए। दार्शनिक युक्तियां लगाई गई। रस कार्य हैं कि अनुमेय, भोज्य हैं कि ज्ञाप्य-इन प्रश्नों पर रस का, काव्य और नाटक दोनों में समन्वय करने की दृष्टि से विचार होने लगा; क्योंकि इस काल में काव्य से स्पष्टतः श्रव्य काव्य का और नाटक से दृश्य का अर्थ किया जाने लगा था। किन्तु सामाजिकों या अभिनेताओं में आस्वाद्य वस्तु रस के लिए भरत की व्यवस्था के अनुसार सात्त्विक, आंगिक, वाचिक और आहार्य इन चारों क्रियाओं की आवश्यकता थी। अलंकारवादियों के पास केवल रस : ७१