पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नाटकों में रस का प्रयोग पश्चिम ने कला को अनुकरण ही माना है। उसमें सत्य नहीं। उन लोगों का कहना है कि 'मनुष्य अनुकरणशील प्राणी है, इसलिए अनुकरण-मूलक कला में उसको सुख मिलता है। किंतु भारत रस सिद्धांत के द्वारा साहित्य में दार्शनिक सत्य की प्रतिष्ठा हुई; क्योंकि भरत ने कहा है-आत्माभिनयनं भावो (२६-३९)- आत्मा का अभिनय भाव है। भाव ही आत्म-चैतन्य में विश्रांति पा जाने पर रस होते है। जैसे विश्व के भीतर से विश्वात्मा की अभिव्यक्ति होती है, उसी तरह नाटकों से रस की। जात्मा के निजी अभिनय में भावमृष्टि होती है। जिस तरह आत्मा की और इदम् की भिन्नता मिटाने में अद्वैतवाद का प्रयोग है, उसी प्रकार एक ही प्रत्यगात्मा के भाव-वैचित्र्यों का--जो नर्तक-आत्मा के अभिनय-मात्र हैं- अभेद या साधारणाकरण भी रस में है। इस रस में आस्वाद का रहस्य है। प्लेटो इसलिए अभिनेता मे चरित्रहीनता आदि दोष नित्य-सिद्ध मानता है; क्योकि वे क्षण- क्षण में अनुकरणशील होते है, सत्य को ग्रहण नहीं कर पाते। किंतु भारतीयों की दृष्टि भिन्न है। उनका कहना है कि आत्मा के अभिनय को, वासना या भाव को अभेद आनन्द के स्वरूप मे ग्रहण करो। इममे विशुद्ध दार्शनिक अद्वैत भाव का भोग किया जा सकता है। यह देवतार्चन है। आत्म-प्रमाद का आनन्द-पथ है। इसका आस्थाद ब्रह्मानन्द ही है। आस्वाद के आधार पर विवेचना करने में कहा जा सकता है कि आस्वाद तो केवल सामाजिको को ही होता है। नटों को उसमे क्या ? आधुनिक रंगमंच का एक दल कहता है कि 'नट को आम्बाद, अनुभूति की आवश्यकता नही। रंगमंच में हम वाह्य-विन्यास (मेक-अप) के द्वारा गूढ़-से-गूढ भावों का अभिनय कर लेते हैं।" किंतु यह विवाद भारतीय रंगमंच के प्राचीन संचालकों में भी हुआ था। इसी तरह एक पक्ष कहता था- 1. The new make-up method is worked out by applying plastic material to a cast of the face, working out the desired character on it and fashioning facial inlays of a secret composition which, affixed with water-soluble gum also a secret can transform the face into another. The flexibility of the material नाटकों में रस का प्रयोग : ७७