पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हो गयी। हो, इतना हुआ कि सिद्धात-रूप से ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति और अलकार आदि सब मतों पर रस की सत्ता स्थापित हो गयी। वास्तव में भारतीय दर्शन और साहित्य दोनों का समन्वय रस मे हुआ था और यह साहित्यिक रस दार्शनिक रहस्य- वाद से अनुप्राणित है। फिर भी रस अपने स्वरूप मे नाट्यों की अपनी वस्तु थी। और उसी में आत्मा की मूल अनुभूति' पूर्णता को प्राप्त हुई थी। इसीलिए स्वीकार किया गया काव्येष नाटकं रम्यम् । १. 'आत्मा की मून अनुभूति' के मन्दर्भ मे –'काव्य और कला' को अन्तिम पक्ति' - 'व्यापकता आत्मा की सकल्पात्मक मूल अनुभूति की है' और निबन्ध- 'रहस्यवाद' की पहली पक्ति 'काव्य मे आत्मा की संकरपात्मक मूल अनुभूति की मुख्य धारा रहस्यवाद है' अवलोक्य है। आत्मा की मूल अनुभूति मकल्पात्मक है, जो मनोमयी स्फुरत्ता के माध्यम से विकल्पात्म रगमच को अपने अभिनयार्थ अपने मे ही संरचित कर लेती है उसकी • इस विश्ववपुषी परिणति को 'क्रीडत्वेनाखिलं जगत्' के द्वारा परिभाषित किया गया। एक लीला है जो अहेतुकी होने से ही लीलापद वाच्य है। -सम्पादक . ७६: प्रसाद वाङ्मय