पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१८५

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रंगमंच भरत के नाटय-शास्त्र में रंगशाला के निर्माण के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से बताया गया है। जिस ढंग के नाट्य-मन्दिरों का उल्लेख प्राचीन अभिलेखों में लिलता है, उससे जान पड़ता है कि पर्वतों की गुफाओं में खोदकर बनाये जानेवाले मन्दिरों के ढंग पर ही नगर की रंगशालाएँ बनती थीं। 'कार्यः शैलगुहाकारो द्विभूमिर्नाट्यमंडपः' से यह कहा जा सकता है कि नाट्य- मन्दिर दो खंड के बनते थे, और वे प्रायः इस तरह के बनाये जाते थे, जिससे उनका प्रदर्शन विमान का-सा हो। शिल्प-मम्बन्धी शास्त्रों में प्रायः द्विभूमिक, दोखंडे या तीनखंडे प्रासादों को, जो कि स्तम्भों के आधार पर अनेक आकारों के बनते थे, विमान कहते हैं । यहाँ 'द्विभूमिः' से ऐसा भी अर्थ लगाया जा सकता है कि एक भाग दर्शकों के लिए और दूसरा भाग अभिनय के लिए बनता था। किन्तु खुले हुए स्थानों में अभिनय करने के लिए जो काठ के रंगमंच रामलीला में विमान के नाम से व्यवहार में ले आये जाते हैं, उनकी ओर संकेत करना में आवश्यक समझता हूँ। रंगशाला में शिल्प का या वास्तु-निर्माण का प्रयोग किग तरह होता था, यह बताना सरल नहीं, तो भी नाट्य-मण्डप तीन तरह के होते थे-विकृष्ट, चतुरस्र और व्यस्य । विकृष्ट नाटय-मण्डप की चौड़ाई से लम्बाई दूनी होती थी। उस भूमि के दो भाग किये जाते थे। पिछले आधे के फिर दो भाग होते थे। आधे मे रंगशीर्ष और रंगपीठ और आधे में पीछे नेपथ्यगृह बनाया जाता था। पृष्ठतो यो भवेत् भागो द्विधा भूतो भवेत् च मः तस्यार्धन विभागेन रंगशीर्षम् प्रयोजयेत् । पश्चिमे तु पुनर्भागे नेपथ्यगृहमादिशेत् । (नाटय शास्त्र २ अ०) आगे के बड़े आधे भाग में बैठने के लिए, जिससे दर्शकों को रंगशाला का अभिनय अच्छी तरह दिखलाई पड़े, ऐसा-सोपान की आकृति का-बैठक बनाया जाता था। कदाचित् वह आज की 'गैलरी' की तरह होता था। स्तम्भानाम् बाह्यतः स्थाप्यम् सोपानाकृतिपीठकम् । इष्टका दारुभिः कार्यम् प्रेक्षकाणाम् निवेशनम् ।। ईटों और लकड़ियों से ये सीढ़ियां एक हाथ ऊंची बनाई जाती थीं। इसी - 1 रंगमंच: ८५