रगमंच में कक्षाएं बनाई जाती थीं, जिनमे अभिनय के दर्शनीय गृह, नगर, उद्यान, ग्राम, जंगल, पर्वत और समुद्र का दृश्य बनाया जाता था। आधुनिक काल के रंगमंचों से कुछ भिन्न उनको योजना अवश्य होती थी, किन्तु - कक्ष्याविभागे ज्ञेयानि गृहाणि नगराणि च उद्यानारामसहितो देशो ग्रामोऽटवी तथा । (नाट्यशास्त्र १४ अ०) इत्यादि से यह मालूम होता है कि दृश्यों का विभाग करके नाट्य-मण्डप के भीतर उनकी इस तरह से योजना की जाती थी कि उनमें सब तरह के स्थानों का दृश्य दिखलाया जा मकता था, और जिस स्थान की वार्ता होती थी, उसका दृश्य भिन्न कक्ष्या मे दिखाने का प्रबन्ध किया जाता था। स्थान की दूरी इत्यादि का भी संकेत कक्ष्याओं में उनकी दूरी से किया जाना था । बाह्यम् वा मध्यमम वापि तथैवाभ्यंतरम् पुनः दूरम् वा सन्निकृष्टम् वा देशाश्च परिकल्पयेत् । यत्र वार्ता प्रवर्तन तत्र कक्ष्याम प्रवर्तते ॥ गगापी मिद्ध विद्याधरो के विमानों के भी दृश्य दिखलाये जाते थे। यदि मृच्छकटिक और शाकुंतल तथा विक्रमोर्वशी नाटक खेलने ही के लिए बने थे, जैमा कि उनकी प्रस्तावनाओं से प्रतीत होता है, तो यह मानना पड़ेगा कि रंग- मंच इतना पूर्ण और विस्तृत होता था कि उसगे बैलों से जुते हुए रथ और घोड़ों के रथ तथा हेमकट पर चढ़ती हुई अप्सराएँ दिखलाई जा सकती थीं। इन दृश्यों के दिखलाने मे मोम, मिट्टी, तृण, लाख, अभ्रक, काठ, चमड़ा. वस्त्र और बांस के फंठों से काम लिया जाता था। प्रतिपादौ प्रतिशिर. प्रतिहम्तो प्रतित्वचम् तृणजः कीलजभण्डै सरूपाणीह कारयेत् । यादशं रूपं सारूप्यगुणसम्भवम् मृण्मयं गात्रकृत्स्नं तु नाना-रूपांस्तु कारयेत् । भांडवस्त्रमधून्छिष्टः लाक्षयाभ्रदलेन नगास्तु विविधा कार्याः च वर्मध्वजास्तथा। (नाटयशास्त्र २४ अ०) ऊपर के उद्धरणों से जान पड़ता है कि सरूप अर्थात् मुखोटों का भी प्रयोग दैत्य-दानवों के अंगों की विचित्रता के लिए होता था। कृत्रिम हाथ और पैर तथा मुखौटे मिट्टी, फूस, मोम, लाख और अभ्रक के पत्रों ने बनाये जाते थे। कुछ लोगों का कहना है कि भारतवर्ष मे 'यवनिका' यवनों अर्थात ग्रीकों से नाटकों में ली गयी है, किन्तु मुझे यह शब्द शुद्ध रूप से व्यवहृत 'जवनिका' भी यद्यस्य रंगमंच : ८७
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