पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१८८

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मिला। अमरकोष में -प्रतिसीरा जवनिका स्यात् तिरस्करिणी च सा; तथा हलायुध में-अपटी कांडपट: स्यात् प्रतिसीरा जवनिका तिरस्करिणी। इसमें 'य' से नहीं किन्तु 'ज' से ही जवनिका का उल्लेख है । जवनिका से शीघ्रता का होतन होता है । जव का अर्थ वेग और त्वरा से है तब जवनिका उस पट को कहते हैं, जो शीघ्रता से उठाया या गिराया जा सके । कांड पट भी एक इसी तरह का अर्थ ध्वनित करता है, जिसमें पट अर्थात् वस्त्र के साथ कांड अर्थात डंडे का संयोग हो । प्रतिसीरा और तिरस्करिणी भी साभिप्राय शब्द मालूम होते हैं। प्रतिसीरा तो नही, किंतु तिरस्करिणी का प्रयोग विक्रमोर्वशी में एक जगह आता है। द्वितीय अंक मे जब राजा प्रमोद-वन मे आने है, तो वही पर आकाश मार्ग से उर्वशी और चित्रलेखा का भी आगमन होता है । उर्वशी चित्रलेखा से कहती है- 'प्रतिच्छन्ना पार्श्ववत्तिनी भूत्वा श्रोष्ये तावत्'। और फिर आगे चलकर उसी अंक में-'तिरस्करिणीम् अपनीय'- तिरस्करिणी को हटाकर प्रकट होती है। प्रतिसीरा का भी प्रयोग संभव है खोजने से मिल जाय; किंतु अपटी शब्द अत्यंत सदेहजनक है। मृच्छकटिक, विक्रमोर्वशी के आदि मे 'ततः प्रविशत्यपटीक्षेपेण' कई स्थानों पर मिलता है। विक्रमोर्वशी के टीकाकार रंगनाथ ने कहा 'यतः नामूचितस्य पात्रस्य प्रबेशो नाटके मतः' इति नाटकसमयप्रमिद्धेयंत्रासूचितपात्रप्रवेशम्नत्राकस्मिकप्रवेशेऽ- पटीक्षेपेणेति वचनं युक्तम् । अत्र तु प्रस्तावनांते सुचितानामेवाप्सरमा प्रवेश इति । केचित्पुनः .-न पटीक्षेपोऽपटीक्षेपे इति विग्रहं विधाय पटीक्षेपं विनेव प्रविशंतीति समर्थयन्ते तदप्यापाद्य कुचोधमात्रमित्यास्तां तावत । (विक्रमोर्वशी- प्रथम अंक) इससे जान पड़ता है कि प्रवेशक की सूचना अत्यंत आवश्यक होती थी और यह कार्य अंकों के आरंभ मे चेटी, दासी या अन्य ऐसे ही पात्रो के द्वारा सूचित किया जाता था। उसके बाद अभिनय के वास्तविक पात्र रंगमंच पर प्रवेश करते है । विक्रमोर्वशी में प्रस्तावना में ही अप्सराओं की पुकार सुनाई पड़ती है और सूत्रधार रंगमंच से प्रस्थान कर जाता है और अप्सराएं प्रवेश करती है। कितु ऐसा प्रतीत होता है कि पटी अभी तक उठी नही है और अप्सराओ का प्रवेश हो गया है। रंगमंच के उसी अगले भाग पर वे आ गई हैं, जहां कि सूत्रधार ने प्रस्तावना की है । इसके बाद अपटीक्षेप होता है अर्थात् पर्दा उठता है तब पुरूरवा का प्रवेश होता है और सामने हेमकूट का भी दृश्य दिखाई पड़ता है; इमलिए कुछ विशेष ढंग के परदे का नाम अपटी जान पड़ता है। संभवतः अपटीक्षेप उन स्थानों पर किया जाता था, जहां सहसा पात्र उपस्थित होता था। उमी अंक में अन्य पात्रों के द्वारा कथा- वस्तु के अन्य विभाग का अभिनय करने में अपटीक्षेप का प्रयोग होता था। यह निश्चय है कि कालिदास और शूद्रक इत्यादि प्राचीन नाटककार रंगमंच के पटीक्षेप से परिचित थे और दृश्यांतर (ट्रांस्फर सीन) उपस्थित करने में उनका प्रयोग भी करते ८८: प्रसाद वाङ्मय